14 Feb 2016

'दुखवा में बीतल रतिया' और उस पर भीष्म साहनी की टिप्पणी



 ('दुखवा में बीतल रतिया' रामेश्वर उपाध्याय की कहानियों का संकलन है, जिसका प्रकाशन 1985 में हुआ ।इस संकलन की एक कहानी का नाम है 'दुखवा में बीतल रतिया'। इसके अलावा ''बहुक्म-ए-वज़ीरे आज़म', 'मुद्राराक्षस' , 'पराजित विजेता' , 'शेष सफ़र', 'मैं बाबूजी नहीं', 'शुभ लाभ', 'अकुआ' और 'विरासत की आग' कहानियाँ इस संकलन में शामिल हैं। कुछ अन्य कहानियाँ मिली नहीं हैं। बहुत खोजने पर मुझे दो कहानियाँ मिलीं--- 'अख़बार का सातवाँ पन्ना' और 'बंगाली भौजी' । धीरे-धीरे सारी कहानियाँ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने की मेरी योजना है। फिलहाल लेखक और किताब के विषय में कथाकार भीष्म साहनी की टिप्पणी (जो इस किताब का ही हिस्सा है) और कवर पेज देखिए --- )









                                            कथाकार भीष्म साहनी की दृष्टि में....

पिछले कुछ सालों से हिन्दी कहानी में, विशेषकर समाजोन्मुख कहानी में, एक नया तेवर देखने को मिला है---अपने आस-पास की ज़िन्दगी से सीधा साक्षात्कार करने की प्रवृत्ति। इसमें कोई लाग-लपेट नहीं होती, न कोई दुविधा, न कोई पूर्वाग्रह। लेखक जिस स्थिति विशेष को चुनता है, उसे बड़ी निर्ममता और बड़े दो-टूक ढंग से उघाड़ता चला जाता है, मानो वह आज के जीवन के यथार्थ को, उसकी पूरी नग्नता में हमारे सामने रख देना चाहता हो। यह विशेषकर उस स्थिति के भीतर पाए जाने वाले अन्तर्विरोध और उससे प्रभावित इन्सानी रिश्तों के सम्बन्ध में होता है।

ज़माना सचमुच बदल रहा है। पिछली पीढ़ी के लेखकों का नज़रिया आज के यथार्थ के प्रति इतना बेलाग और दो-टूक नहीं हो पाता। शायद इसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी यादें, उनके संस्कार, बीते कल की उनकी आशाएँ-आकांक्षाएँ उनके आड़े आती रहती हैं और उनकी दृष्टि को प्रभावित करती रहती हैं। आजादी के पहले के देशव्यापी संघर्ष, लोगों के दिलों में पाई जाने वाली छटपटाहट, देश के जीवन में अनेक व्यक्तियों, राजनयिकों के साथ लगाव और आज के ज़माने की बीते ज़माने के साथ तुलना करने में ही सारा वक्त बीत जाता है।

नई पीढ़ी का लेखक इन पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उसकी नज़र आज की नज़र है।वह आज के जीवन की विडंबनाओं-विसंगतियों को अतीत के संदर्भ में नहीं देखता, उन्हें आज की नज़र से ही देखता है।

इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में भी इस दृष्टि की झलक मिलती है। रामेश्वर उपाध्याय उन चंद युवा कहानीकारों में से हैं, जो इसी बेलाग नज़रिये के कारण अपनी रचनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। उनकी कहानियों में--- भले ही वे निजी अनुभवों पर आधारित हों,अथवा आस-पास की जिन्दगी में से ली गई हों--एक प्रकार की सादगी, स्पष्टता और पैनापन पाया जाता है। उनकी नज़र ज़िंदगी के अनेक पहलुओं की ओर गई है। कहीं हम जेलखाने की ऊँची-ऊँची दीवारों के पीछे जा पहुंचते हैं, तो कहीं गली-चौराहे की भीड़ में अपने को खड़ा पाते हैं, जो एक रिक्शा वाले के पिट जाने पर इकट्ठा हो आती है, या एक तरूण लेखक के मनोद्वेगों के दायरे में, जो अपनी पहली रचना के छप जाने पर इतना उत्साहित है कि जीवन की सभी कटुताएँ भूल चुका है। ये सभी कहानियाँ हमारे सामने जीवन का एक प्रामाणिक एवं सटीक चित्र प्रस्तुत करती हैं। पर इतना ही नहीं, सभी के पीछे लेखक का गहरा लगाव, मानवीय सद्भावना और प्रतिबद्धता भी झलकती है। वह समाज का यथावत् चित्रण कर देने से ही संतुष्ट नहीं, वरन् परिवर्तन की उन आदतों, ध्वनियों को भी सुनता है,जो बढ़ते जुलूसों की पदचाप में ही नहीं, जेल के सींखचों के पीछे पाए जाने वाले सन्नाटे में भी सुनाई दे जाती है।

रामेश्वर उपाध्याय की कलम से सशक्त, सुन्दर साहित्य पढ़ने को मिलता रहेगा, ऐसा मुझे विश्वास है।
---------------भीष्म साहनी

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