19 Aug 2016

बहुक्म-ए-वज़ीरे आज़म

(कहानी)
                                                                                                                       --रामेश्वर उपाध्याय

अभी-अभी बारह का घंटा लगा है। रात काफ़ी गहरा चुकी है। आज सर्दी भी बढ़ गई है। वार्ड के बाहरी बरामदे से वार्डरों के बूटों की खट-खट की आवाज़ें आ रही हैं। कुछ ही देर पहले कोई ट्रेन बड़ी तेज़ शोर मचाते हुए गुज़र गई है। कहीं आसपास में हरि-कीर्तन जमा हुआ है। ढोल-मजीरे की हलचल में कभी-कभी उसका मन खो जाता है। उसके अंतर में एक विचित्र तरह की छटपटाहट है। उसे नींद नहीं आती। जेल की पूरी आबादी गहरी नींद में सो रही है। तेरह नंबर वार्ड की लौह सलाखों वाली खिड़की पर वह घंटों से बैठा हुआ है। इस कटी कंबल से उसकी सर्दी भी नहीं जाती। फिर भी, खिड़की से आती सर्द-बर्फ़ीली हवाओं को वह झेल रहा है और बैठा हुआ है। इस जेल में वर्ष-भर से लाश की तरह पड़ा हुआ है और बैठे-बैठे जड़ बनता जा रहा है। उसके मस्तिष्क में शून्य भर गया है। ठहर-ठहर कर कई बातें दिमाग में आती हैं, लेकिन सारी-की-सारी अधूरी रह जाती हैं। बेतरतीबी से विचार सूझते हैं, और गड्डमड्ड होकर विलीन हो जाते हैं। ....मां की सख़्त बीमारी...पत्नी के पेट का कमज़ोर बच्चा.....भगीने का कटा हुआ हाथ...जेलर का अमानुषिक व्यवहार...आम कैदियों की बदतर स्थिति...देश में फासिस्ट शक्तियों के मज़बूत होते शिकंजे और न जाने, इसी तरह की कितनी बातें। फिर कभी कीर्तन की ओर मन खिंच जाता है तो कभी सर्दी की ठिठुरन से चीखते सियारों के 'हुआ-हुआ' से संवेदना चिपक जाती।

                      बाहर बहुत कुहासा है। जेल के लैंप पोस्टों की रोशनी ढिबरी से भी धीमी लगती है। अस्पताल वार्ड के सामने नीम के दरख़्त के नीचे एक वार्डर ओवरकोट में छिपकर बैठा है। वह खैनी पीट रहा है। उसे इच्छा होती है कि उसे इधर ही बुला ले। उससे पूछे कि जेल कैसा चल रहा है। बाहर के हाल-चाल क्या हैं? आज के रेडियो-न्यूज़ में कौन सी विशेष बातें हैं? जिन बन्दियों को कल डंडा बेड़ी-जेल की सज़ा हुई, वे कब तक छूट पायेंगे? फाँसी वाले बंदी की लाश का क्या हुआ? लेकिन वह केवल सोच कर ही रह जाता है।

लैंप पोस्ट की बत्तियां दो बार बुझ-बुझ कर जली हैं। यह जेल का इनर सिगनल है। जब रात के समय कोई बंदी जेल के अंदर आने को होता है, तो इस सिगनल से वार्डरों को सावधान किया जाता है और पहरे पर तैनात हवलदार को जेल गेट में आकर बंदी को ले जाने का आदेश दिया जाता है। सिगनल पाकर हवलदार ऊँची आवाज़ में हाँक लगाता है और जेल गेट की ओर वह जाता है। वह हवलदार को जेल गेट की ओर जाते हुए देखता रहता है, उसके मन में एक जिज्ञासा छटपटाने लगती है। इतनी रात गए आखिर कौन आ रहा है? आज की स्थिति में तो किसी को कभी भी अंदर पहुँचा दिया जा सकता है...। जेल के भीतरी फाटक के चरमराने की आवाज़ उसके कानों में पड़ती है। फाटक खुलता है। एक लम्बे क़द का आदमी अन्दर दाख़िल होता है। उसके पीछे-पीछे हवलदार चलता है। फाटक बंद हो जाता है। अब हवलदार आगे हो गया है और लंबे क़द का वह आदमी पीछे। हवलदार तेरह नंबर वार्ड की ओर बढ़ता चला आ रहा है। उसे फ़िक्र होती है। वह आदमी कौन हो सकता है जिसे हवलदार उसी के वार्ड में ले आ रहा है? वह जल्दबाज़ी में लालटेन की घुण्डी घुमाता है। रोशनी तेज़ हो जाती है। आदमी खिड़की के सामने से गुज़रा है तो वह उस पर गौर करता है। लंबे क़द के आदमी ने दाढ़ी बढ़ा रखी है। बदन पर कोई कटा-फटा कपड़ा ओढ़ रखा है, देखने में वह भिखमेंगे की तरह दिखता है। वह आदमी इतनी जल्दी आँखों से ओझल हो जाता है कि न तो वह उसे ढंग से देख पाता है और न उसे समझ ही पाता है।

                                    कर्रकराहट के साथ उसके वार्ड का लौह दरवाज़ा खुलता है। हवलदार वार्ड में टॉर्च की रोशनी फेंकता है। वार्ड का पहरेदार बंदी, हरिया, उठकर बैठ जाता है। हरिया बीससाला बंदी है। उसके वार्ड की पहरेदारी की ज़िम्मेदारी उसी की है। वार्ड की खिड़कियों की छड़ें सही सलामत रहें, कोई बंदी आत्महत्या न करे, आपस में कोई मारपीट नहीं करे, कोई बंदी भागने की कोशिश नहीं करे, ये सारी ज़िम्मेदारियाँ हरिया की हैं। यदि कोई बंदी, सरकार और जेल प्रशासन के बारे में कोई गुप्त बात करे, कोई अनशन की तैयारी करे, कोई गुप्त चिट्ठियाँ लिखे, कोई जेल मैनुअल के ख़िलाफ़ कोई योजना बनावे, हरिया को इन सभी बातों की जानकारी जेलर को देनी होती है। हरिया देखने से बहुत खूँखार लगता है। उसकी ख़ूनी आँखों में हमेशा ख़ौफ़ के कतरे तैरते रहते हैं। वार्ड के इन बन्दियों के लिए हरिया प्रेत से भी ज़्यादा खूँखार और ख़तरनाक है।

............कुल बारह जमा ठीक है, हुज़ूर........हरिया हवलदार को रिपोर्ट देता है। हवलदार टार्च की रोशनी फेंककर बन्दियों की गिनती करता है। फिर फाटक में ताला ठोकता है और बूट पटकते हुए बाहर की ओर चला जाता है।

हरिया ने उस कोरान्टिस(नया बन्दी) को दो कम्बल दिए हैं। एक बिछाने के लिए और दूसरा ओढ़ने के लिए। अभी आए बन्दी ने, हरिया के बग़ल में ही अपना कम्बल बिछा लिया है। वह हरिया के बग़ल में ही बैठ गया है। ठेहुनों पर केहुना देकर उसने अपनी गर्दन झुका ली है।

'किस दफ़े में आये हो?' हरिया उससे पूछता है, लेकिन वह कोई जवाब नहीं देता।

'कहाँ के रहने वाले हो?' हरिया उससे पूछता है। लेकिन वह चुप लगाए रहता है।

'कण्ठ में छेद नहीं है क्या जो......' हरिया ग़ुस्सा में बोलते हुए पिच से खैनी थूक देता है। वह आदमी इतने पर भी गुमसुम लगाए बैठा है।

'सो जाओ, साले! कल से चाराकल में भिड़ाऊंगा तो खुद-ब-खुद बोली निकलने लगेगी....।' हरिया धमकी के रूखे स्वर में झुंझलाते हुए कहता है। फिर वह लालटेन की घुण्डी घुमाकर रोशनी कम कर देता है और कम्बल से मुँह ढक लेता है।

यह नया आदमी उसे रहस्यमय जीव लगता है। वह खिड़की पर बैठे-बैठे ही देख रहा होता है। उस आदमी के चेहरे पर लालटेन की धीमी रोशनी पड़ रही होती है। आदमी चिन्तित मुद्रा में सिमटकर बैठा हुआ है। खिड़की पर बैठे-बैठे उसका मन ऊब गया है। वह अपने बिस्तर की ओर बढ़ता है। अभी आए कोरान्टिस पर वह नज़र फेंकता है। सोचता है, पूछूँ तो, कि कौन है और किस जुर्म में जेल आया है। वह उसके क़रीब जाता है। कुछ पल तक उसके पास ही खड़ा रहता है। लेकिन उसके खड़ा रहने की कोई प्रतिक्रिया उस आदमी पर नहीं होती है। वह उससे पूछता है। 'तुम किस जुर्म में आए हो भाई?' लेकिन जवाब में वह केवल अपनी गर्दन ऊपर उठा भर लेता है। बोलता कुछ नहीं।' मैं भी एक बन्दी हूं, ठीक तुम्हारी तरह...एक दूसरे के बारे में हम जानेंगे नहीं, तो फिर साथ-साथ रहेंगे कैसे?' वह फिर उस आदमी से पूछता है, आदमी के चेहरे के भाव बदलते हैं। उसका गला हकलाता सा है। वह सोचता है कि आदमी अब कुछ-न-कुछ जवाब देगा। लेकिन, वह कोई जवाब नहीं देता। केवल उसे देखता भर रह जाता है। उसे अजीब लगता है। यह आदमी कुछ बोलता क्यों नहीं, उसकी समझ में नहीं आता। वह अपने बिस्तर पर चला आता है। कम्बल से मुँह ढक लेता है। सोने की कोशिश करने लगता है। लेकिन मानसिक ऊहापोह के साथ ही खटमलों की भाग-दौड़ और मच्छरो की भनभनाहट के कारण उसकी आँखें लगती ही नहीं। उसका दिमाग़ फिर इधर-उधर की बातों में भटकने लगता है..।

         थोड़ी ही देर में वह फिर उठकर बैठ जाता है। मन बुझाने के ख़याल से बिस्तर के सिरहाने से अपनी फ़ाइल निकाल लेता है। उसके फ़ाइल में कोई भी आपत्तिजनक चीज़ नहीं है। उसकी फ़ाइल को साथ लाते समय पूरी तरह से जाँच कर ली गई थी। फ़ाइल में उसकी कुछ स्वरचित कविताएँ थीं, कुछ अख़बारों की कतरनें थीं और किताबों से काटकर निकाली गई एक तस्वीर थी। वह अपनी फ़ाइल में पूरी तरह से खो जाता है। तस्वीर को निकाल कर एक ओर कम्बल पर रख देता है और कविताओं को दुहराने लगता है, फिर अख़बारों की कई कतरनों पर वह हल्की दृष्टि उलटता जाता है। अख़बार की एक कतरन पर अचानक उसकी दृष्टि गड़ जाती है। वह पाँच नवम्बर उन्नीस सौ चौहत्तर के 'प्रदीप' दैनिक की एक लम्बी कटिंग होती है। क़रीब दो साल पहले उसने अख़बार से इसे काटकर रख लिया था। इस कतरन में एक चित्रकार की व्यथा-कथा प्रकाशित की गई थी। उसका नाम मानिक उस्ताद था। वह जाति का कुम्हार था। गाँव में वह कुम्हारी के काम किया करता था। उसकी एक पत्नी भी थी। एक बच्चा भी था। पत्नी जब तक ज़िन्दा थी, कुम्हारी के काम में उसे कोई दिक़्क़त नहीं होती थी। मानिक उस्ताद चाक पर माटी के बर्तन तैयार किया करता था। भट्टी जोड़कर उन्हें पकाता था और उसकी पत्नी मनिया गाँव के मालिकों के यहाँ उन्हें बेच आती थी। हफ़्तेबारी मेले में भी उसके बर्तन धड़ल्ले से बिकते थे। मानिक उस्ताद चूँकि बोल नहीं सकता था, अस्तु वह बर्तनों को बेचने नहीं जाया करता था। अलबत्ता, पूजा के दिनों में सरस्वती और दुर्गा देवी की प्रतिमाएँ गढ़ने के लिए उसे पड़ोसी गाँवों में जाना पड़ता था। उसकी पत्नी मनिया, उसकी मज़दूरी तय कर देती थी और वह गाँवों में जाकर प्रतिमाएँ गढ़ा करता था। फ़ुर्सत के दिनों में मानिक उस्ताद स्थानीय मेलों के लिए खिलौने बनाया करता था, उन्हें रंगता था और मानिक उस्ताद के हाथों से गढ़ी गई मूर्तियों और खिलौनों की अच्छी साख बन गई थी। उसकी साफ़-सुथरी कला की सभी दाद दिया करते थे। मानिक उस्ताद के हाथों बने खिलौने औरों की अपेक्षा महँगे क़ीमत पर बिका करते थे।

मनिया के मर जाने के बाद भी मानिक उस्ताद गाँव में रह सकता था। यह बात तय थी कि उसके और उसके बेटे के पेट पर आफ़त नहीं आती। अब तो उसका बेटा सोमरूआ भी किशोर हो चला था। उसके कामों में हाथ बँटा सकता था और ग्राहकों से मोल-तोल कर सकता था। काम चल जाने की स्थिति थी। फिर भी, मानिक उस्ताद गाँव में नहीं रूका। मनिया उसकी जान थी। वह मर गई तो मालिक लोग उसकी ज़ुबान नहीं होने का नाजायज़ फ़ायदा उठाने लगे। उधार कभी लौटता नहीं था। उल्टे ऊपर से गाली-गलौज भी सहना पड़ता था। मानिक उस्ताद की भावना को ठेस पहुँचती थी और उसके हाथ की इल्म कुण्ठित होती जा रही थी। उसे अपने गाँव से घृणा हो गई थी और सोमरूआ को लेकर वह शहर चला आया था। शहर वह खाली हाथ आया था। माटी और हाथ यही दो पूँजी थे। मनिया जो दो-चार पैसे रख गई थी, वह उसके किरिया-करम में ही ख़त्म हो गया था। उसे अपनी चिन्ता कम ही थी। सोमरूआ के लिए वह परेशान रहा करता था। उसने चिरैयाटाँड़ पुल के नीचे रेलवे लाइन से थोड़ा हटकर, अपना डेरा जमा लिया था। वह सोमरूआ को साथ लेकर सुबह तड़के ही निकल जाता था और पटना स्टेशन के क़रीब, महावीर स्थान की चिकनी फ़र्श पर खड़िया और गेरू और कोयले की सहायता से देवी-देवताओं की तस्वीरें बनाया करता था। बजरंग बली के दर्शन के लिए जुटी भक्तों की भीड़ उसकी बनाई गई तस्वीरों पर फूल-मालाएँ और पैसे चढ़ाया करती थी। तस्वीरें इतनी मनमोहक और साफ उतरतीं थीं कि बग़ल से गुज़रने वाले पल-भर रूककर उसे देख ही लेते थे। तस्वीरों पर फेंके गए इन्हीं पैसों में से उसे एक अठन्नी ट्रैफ़िक पुलिस वालों को और एक अठन्नी मन्दिर के एक पंडा जी को देना पड़ता था। बाकी जो पैसे बचते थे, उससे दोनों बाप-बेटे की परवरिश चल जाया करती थी।

             चिरैयाटाँड़ पुल के इलाके के अधिकांश लोग उसे जान गए थे। पुल के सामने खंडहरनुमा मकान में जो कुली और पल्लेदार रहा करते थे, वे उसे तहेदिल से मानते थे। पुल के विशालकाय खम्भों पर मानिक उस्ताद ने एक-से-एक बढ़कर तस्वीरें उतारीं थीं। क़रीब-क़रीब पुल के सभी पाये आकर्षक चित्रों से भरे पड़े थे। देवी-देवताओं की तस्वीरें, नेताओं के भव्य चित्र और मनमोहक दृश्य...रेलवे पटरियाँ हेलकर शॉटकट रास्ते से आने-जाने वाले लोग, पायों पर बनी इन बेमिसाल तस्वीरों को नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते थे।

                     उस दिन उसे चित्र-प्रदर्शनी लगाने नहीं जाना था। बिहार बन्द का आह्वान था और दूकानें बन्द होने वाली थीं। रेलवे, यातायात और जनजीवन सब कुछ ठप्प किया जाने वाला था। ऐसी स्थिति में प्रदर्शनी लगाने से क्या लाभ, जब लोगों को घर से निकलना ही नहीं था। वह उस दिन खड़िया, गेरू और कोयले के टुकड़े उठाकर एक पाये को सजाने में लग गया था। उसका सोमरूआ कुलियों और पल्लेदारों के बच्चों के साथ कच्ची राह पर खेलने में मशग़ूल रहा था...चिरैयाटाँड़ पुल का दृश्य....पुल के नीचे से गुजरती हुई ट्रेन और शॉटकट रास्ते पर आते-जाते लोग...दृश्य बहुत ही साफ़ उतर रहा था। वह दृश्य बनाने में इतना मशग़ूल हो चुका था कि उसे इस बात का पता ही नहीं चला कि उससे थोड़ी ही दूरी पर क्या कुछ हो रहा था। और अचानक जब उसका ध्यान टूटा था, तब तक सब कुछ हो चुका था। रेलवे की पटरी पर हज़ारों की भीड़ जुट आई थी और रेलवे यातायात ठप्प कर दिया गया था। एक ओर पुलिस वालों का भारी जमाव था। क्षण-भर के अन्दर ही वह काँप गया था और भागकर पाये के नीचे दुबक गया था। अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसने लगी थीं और लाशें पटरियों पर बिछती गईं थीं। लाशें घसीटी जाने लगी थीं और वातावरण आतंकमय हो गया था। त्राहि-त्राहि मच गई थी। केवल चीख-पुकार ही सुनाई पड़ रही थी। घण्टे-भर बाद जब चारों ओर सन्नाटा छा गया, तो वह पुल के नीचे से निकला था। सोमरूआ की घसीटती हुई लाश देखकर वह वहीं बेहोश होकर गिर पड़ा था। मानिक उस्ताद को बेहोशी के दौरे पड़ते रहे थे। कुली और पल्लेदार, उसे अपने टूटे-फूटे मकान में ले आए थे और उसके मुँह पर पानी के छींटे देते रहे थे। वह बार-बार चीखने की कोशिश में बेहोश हो जाया करता था। दो दिनों बाद अख़बारी नुमाइन्दे उसके पास पहुँचे थे और जानना चाहते थे कि मानिक उस्ताद इस घटना के लिए किसे ज़िम्मेदार मानता था...सरकार को, भीड़ को या मौजूदा व्यवस्था को....? मानिक उस्ताद ने कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की थी और वह अपनी लाल-सुर्ख़ आँखों से आँसू बहाता रह गया था। अख़बार वालों ने मानिक उस्ताद का पूरा इण्टरव्यू प्रकाशित किया था और उसने उसकी कतरन काटकर रख ली थी। और आज फ़ाइल की चीज़ें उलटते-पलटते, उसे मानिक उस्ताद का दर्द सालने लगा था। मानिक उस्ताद के बारे में तरह-तरह की बातें सोचते-सोचते, पता नहीं, उसकी आँखें कब लग गई थीं।
सुबह हरिया ने उसे झिंझोड़कर जगाया। वह जेल गेट की ओर आँख मीचते हुए भागा था। उसके बाबूजी उससे मिलने आए थे। ख़ुफ़िया विभाग के साहेब ने उसे अपने पिता से मिलने के लिए बुलवाया था। ख़ुफ़िया के साहेब के सामने ही वह कुछ देर तक अपने बाबूजी से बातें करता रहा था। घर-परिवार की बातों के बाद, उसके बाबूजी ने उससे एक विचित्र घटना का ज़िक्र किया। उन दिनों महानगर में एक हंगामा मचा हुआ था। कोई आदमी था, जो नगर के फुटपाथों और नुक्कड़ों पर रात-बिरात रोमांचक तस्वीरें बनाकर लापता हो जाया करता था। उन दृश्यों को देखने के लिए सैकड़ों-हज़ारों की भीड़ जुट जाया करती थी। सड़कों पर खोदी जाने वाली उन तस्वीरों को लेकर महानगर की पुलिस परेशान थी। प्रशासन तबाह था। उनके लाख कोशिशों के बावजूद दृश्यों को ज़मीन पर उतारने वाला आदमी हाथ नहीं लग रहा था।

देश में आपातकाल की घोषणा होने के साथ ही साथ उस आदमी ने अपनी हरकतें शुरू कर दी थीं। एक सुबह, बिहार विधान सभा के मुख्य द्वार की सड़क पर, ठीक शहीद चबूतरे के सामने सैकड़ों की भीड़ जुट आई थी। सड़क के बीचों-बीच, एक वृहद् आकार का जीवन्त दृश्य बना हुआ था। उस दृश्य को दर्शक आँखें फाड़-फाड़कर देखते रहे थे। दृश्य बड़ा ही रोमांचक था। उसे देखने ही मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते थे। इतना जीवन्त दृश्य तो कभी किसी ने देखा तक नहीं। दृश्य उमड़ आई भीड़ की संवेदना को सीधे तौर पर छू रहा था। खड़िया, गेरू और कोयले के टुकड़ों का यह कमाल देखकर लोग विस्मय में पड़ गए थे। लोग सड़क की इस तस्वीर को देखने में इतना अधिक मशग़ूल हो गए थे, कि उन्हें इस बात का ज़रा भी ख़याल नहीं रह गया था, कि मौजूदा हालात में आँखें खोलकर सरेआम खड़ा रहना, एक संगीन जुर्म था। भीड़ उस दृश्य को देखते रहने के लिए धक्कामुक्की करती रही थी।

                    शहीद चबूतरे की चिकनी सड़क पर कुरूक्षेत्र का महाभारत छिड़ा हुआ था, विधान सभा भवन का आंशिक दृश्य.....छात्र-नौजवानों की जमघट....नारे लगाने की मुद्रा में उनके खुले हुए मुँह और तनी हुई मुट्ठियाँ...पुलिस और फौज का जमाव...उनकी उठी हुई लाठियाँ और तनी हुई बन्दूकें....ज़मीन पर धराशायी हो गए लोगों की छाती से चिपकी फौजियों की बूटें....घिसटती हुई लाशें....लोगों के चेहरों पर ख़ौफ़ और आतंक की रेखाएँ...। दृश्य के नीचे टेढ़ी-मेढ़ी लिपि में लिखा एक वाक्य....18 मार्च, चौहत्तर की एक याद...इस दृश्य को देखकर पटना के लोगों की आँखों के सामने अट्ठारह मार्च, सन् चौहत्तर का ख़ौफ़ और आतंक ताज़ा हो गया। पटना की छाती पर दो-तीन साल पहले का जो ज़ख़्म भरता गया था, वह फिर से रिसने लगा था।

सूचना मिलते ही पुलिस यानें आई थीं। लाठियाँ खड़खड़ाकर भीड़ को तितर-बितर कर दिया गया था। जिन लोगों के दिलो-दिमाग़ पर वह दृश्य अंकित हो गया था, उनके दिलो-दिमाग़ को साफ करना सबसे अधिक ज़रूरी समझा गया था और इस लिहाज़ से शहर के हर सभ्य दिखने वाले आदमी का पीछा किया गया था। दो-चार लोग जहाँ भी बातें करते दिख जाते थे, उन्हें खदेड़ दिया जाता था।

अपराधी को गिरफ़्तार करने के लिए पुलिस परेशान थी। प्रशासन तबाह था। सूचना दिल्ली भेज दी गई थी। महानगर में पूरी चौकसी बरती जा रही थी। फौजियों की गश्त तेज़ कर दी गई थी। ख़ुफ़िया विभाग को पूरी तरह सतर्क कर दिया गया था। अब सम्पर्क विभाग इस बात की खुली घोषणा कर रहा था कि अराजकता फैलाने के उद्देश्य से किए जा रहे किसी भी षड्यन्त्र के विरूद्ध महानगर की जनता एक होकर लड़े। दूकानों एवं मकानों के मालिकों को इस बात की नोटिस दे दी गई थी कि वे अपने घरों एवं दूकानों के सामने पहरे बैठा दें, ताकि किसी के घर-दूकान के सामने ये तस्वीरें न बनें। अख़बारों को इस बात की सख़्त हिदायत दे दी गई थी कि वे चित्र और चित्रकार सम्बन्धी कोई भी ख़बर नहीं छापें। 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' जैसे सूत्र वाक्यों को ज़ोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा था।

इतनी सावधानियाँ बरती जाने के बावजूद अगले ही हफ़्ते फिर महानगर में ज़ोरों की सरगर्मी फैली थी। जिसे जहाँ ख़बर मिली, वह महेन्द्रू घाट की ओर भागा। रिक्शा, स्कूटरों की कतारें लग गईं। पहले जो घाट की सुबह वाली स्टीमर आई तो हज़ारों यात्री वहीं घण्टों जमे रहे। भीड़ के बदन में सनसनाहट दौड़ गई थी। लोग भौंचक थे, उनके चेहरे के रंग तेज़ी के साथ बदलते रहे थे। लोग डर भी रहे थे और उबल भी रहे थे।

महेन्द्रूघाट की चिकनी फ़र्श पर झकझोर देने वाला एक वृहद् चित्र बना था। ....गया विष्णुपद का मन्दिर.....लाठी भाँजते हुए फौजी.....बन्दूकें चलाते हुए दस्ते....यानों पर लदती लाशें.. और फल्गू नदी के तट पर सामूहिक रूप से दफ़नाये जाते ठण्डे बदन...चित्र के नीचे लिखा एक वाक्य...गया काण्ड के शहीदों की याद में...।

इस बार भी पुलिस आई। ऑफ़िसर आए। खुफिया के लोग जुटे। भीड़ को तितर-बितर किया गया। पानी की बाल्टियाँ उड़ेली गईं। रिक्शा-ताँगा वालों और कुलियों पर बेतें बरसाई गईं, फिर शुरू हुई तहकीकात। लेकिन कुछ भी पता नहीं लग सका कि कौन-सा आदमी कब इन तस्वीरों को ज़मीन पर उतारता है और कब, कैसे लापता हो जाता है। यह बात तो तय हो चुकी थी कि इन दृश्यों को एक ही आदमी रेखांकित करता है। लेकिन, वह कौन है, क्या है, और क्यों ऐसा करता है, यह पता लगना मुश्किल ही बना रहा।

            महीने में कम-से-कम तीन-चार ऐसे हादसे हो रहे थे। सुबह तड़के ही यह ख़बर लू की लपटों की तरह महानगर भर में फैल जाती और लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता। भीड़ पहुँचती, पीछे-पीछे पुलिस पहुँचती। भाग-दौड़ मचाती। हंगामें खड़े होते। आम जनता का अनुशासन भंग होता। समय की बर्बादी होती। उत्पादन घटता। देश की प्रगति में बाधा पड़ती...जनता का मन सहकता, आँखें खोलकर चलने की बुरी लत लगती। यह सब हो रहा था, चित्रों के कारण...

पूरा प्रशासन तबाह हो रहा था। ऑफिसरों की गर्दनों पर तलवारें दिल्ली की ओर से लटकती आ रही थीं। सबके जी पर आफ़त पड़ी हुई थी। बेचैन पुलिस रोज़ दो-चार जगहों पर छापे डालती, दो-चार अनजान लोगों को पीटती और दस-बीस लोगों को गिरफ़्तार करती थी। फिर भी चित्र बन रहे थे। कभी जी.पी.ओ के मैदान में, कभी लॉन के चबूतरे पर, कभी किसी सिनेमा हॉल के अगवारे पर, कभी गोलघर की दीवारों पर, कभी श्मशान घाट के खुरदुरे फ़र्श पर, कभी एम.एल.ए फ्लैट की मुख्य सड़क पर तो कभी किसी मिनिस्टर के क्वार्टर के सामने अगवारे पर, कभी आरथोडेक्स चैम्बर के बरामदे पर तो कभी किसी रेलवे गुमटी पर। कहीं-न-कहीं तस्वीरें लगातार बनती रही थीं। उनके बनने-बिगड़ने का क्रम टूट नहीं रहा था।

इन तस्वीरों के ज़रिए पटना की सड़कों पर जनआन्दोलनों का जो इतिहास खोदा जा रहा था, इस क्रूर आपातकाल के बावजूद इसकी गूँज चारों ओर थी। औरों की तो बात छोड़ भी दी जाए, महानगर के वे बुद्धिजीवी लोग, जो अपनी सुविधाओं के बदले ख़ामोश रहने के लिए नुक्कड़ों पर जमघट लगाते थे, अब वे भी सुगबुगाने लगे थे।

यह बड़ी ही ख़तरनाक बात थी। पुलिस और प्रशासन की लाख चौकसी के बावजूद चित्रकार बन्दी नहीं बनाया जा सका था। लाज और शर्म की बात थी। यह बात तय थी कि यदि चित्रकार इसी तरह से प्रशासन की आँखों में धूल झोंकता रहा तो महानगर की जनता में देश-प्रेम और अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं रह जाएगी। इसलिए, अब कड़ा रूख अपनाया गया। चित्रों को देखने के जुर्म में नगर के भिन्न-भिन्न हिस्सों में सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए। अनेकों मकान एवं दुकान-मालिकों की पिटाई की गई, अनेकों पर देश-द्रोह के आरोप में ज़ब्त कुर्क का वारण्ट किया गया। सैकड़ों की जेल में ही नसबन्दी कर दी गई ताकि उनकी विद्रोही बुनियाद कभी नहीं पनप सके।

                एक दिन वह सरेआम चित्र बना रहा था। दिन-दहाड़े। मिनट के मिनट में यह सूचना महानगर के हर कोने में फैल गई थी। महानगर में हलचल मच गई थी। देखते-ही-देखते महावीर स्थान के अगवारे पर हज़ारों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ट्रैफिक जाम होने लगी थी। चित्र और चित्रकार को देखने के लिए लोग जूझने लगे थे। चित्रकार दृश्य को ज़मीन पर उतारने में मशग़ूल था। वह बहुत तेज़ी से खड़िया, गेरू और कोयले के रंग भर रहा था। उसे भीड़ की कोई चिन्ता नहीं थी। उसे और किसी भी बात की फ़िक्र नहीं थी। बहुत जल्दी में था। वह आज एक बड़ा ही जीवित और रोमांचक दृश्य उतारने में व्यस्त था।
चित्रकार ने आज एक अभूतपूर्व तस्वीर उतारी थी। दृश्य में एक बड़ा सा महल है....महल के विशाल हॉल में देश की साम्राज्ञी राजसिंहासन पर विराजमान है...सेठों और चाटुकारों से वह घिरी हुई है...साम्राज्ञी के हाथों में एक मोटा-सा ग्रन्थ है...ग्रन्थ पर 'नया संविधान' शब्द लिखा हुआ है...संविधान के पन्ने खुले हुए हैं...संविधान ग्रन्थ के मुख्य पृष्ठ पर एक कँपा देने वाला दृश्य रेखांकित है...रेलवे पटरियाँ....उठी हुई बन्दूकें....धसकती लाशें...लहूलुहान चेहरे लिए भागते लोग....और एक फौजी की बन्दूक की संगीन के नोंक पर टँगा एक फटेहाल बालक....। संविधान ग्रन्थ के मुख पृष्ठ को देखकर साम्राज्ञी मुस्करा रही है और उसके राजसिंहासन के नीचे आग की तिल्लियाँ सुलग रही हैं.....। एक ओर चित्रकार ने एक वाक्य लिख दिया था। मैं गूँगा हूँ....मेरी ज़ुबान नहीं है...। मेरा एक बेटा छिन गया है.....मुझे कुछ बहादुर बेटों की ज़रूरत है...। कृपया मेरी सहायता करें....।"

पुलिस आई थी। लेकिन इस बार न भीड़ भागी और न घबराई, लोग अड़े रहे। लोग चित्रकार को सम्मान की दृष्टि से देखते रहे। कुछ लोगों ने चित्रकार के प्रति सहानुभूति दिखाई। कुछ लोगों ने चित्रकार को कहा कि वह अब भाग जाए वरना पुलिस उसे गिरफ़्तार कर सकती है। कुछ नौजवान चित्रकार का बेटा बनने को तैयार हो गए और पूरी भीड़ उसकी सुरक्षा में ज़बरदस्त मोर्चाबन्दी करके खड़ी हो गई थी। वह तनिक भी नहीं घबराया और न उसने भागने की ही कोशिश की। वह अपना ज़ुबान रहित मुँह बनाए, नारे लगाने की मुद्रा में आकाश की ओर मुट्ठी उठाये, अटल विश्वास के साथ अड़ा हुआ था। उसके मुँह से आवाज़ें तो नहीं निकल रही थीं, लेकिन उसके चेहरे के बदलते भावों को पढ़कर अधिकांश लोग यह समझ रहे थे कि वह क्या कहना चाहता था।

पुलिस उसे गिरफ़्तार करने के लिए आगे बढ़ी। कुछ लोगों ने पुलिस का प्रतिवाद किया। उसे क्यों गिरफ़्तार कर रहे हो? ....उसके चित्रों से तुम्हारा क्या बिगड़ता है?

'इसे गिरफ़्तार करना इसलिए ज़रूरी है, ताकि लोग इस बात को समझें कि ऐसे अराजक चित्र बनाना और अपने को गूँगा कहना कितना संगीन जुर्म है और इस अपराध में किसी को कोई भी सज़ा दी जा सकती है....।' एक आफ़िसर ने तपाक से कहा। कुछ सभ्य लोग उससे बतियाने लगे। उसने कहा-'एकदम ऊपर से ही आदेश आया है, दिल्ली से...इसमें हम क्या कर सकते हैं?' भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठियाँ खड़खड़ाई गईं। लेकिन कुछ ऐसे नवयुवक थे जो चित्रकार का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और वे लगातार पुलिस का प्रतिरोध कर रहे थे। उन्हें चित्रकार के साथ ही गिरफ़्तार कर लिया गया था।

अपने बाबूजी से मिलकर जब वह अपनी वार्ड में लौटने लगा, तो उसे रात आए आदमी की याद हो आई। रात उसके बारे में कुछ जान नहीं पाया था। वह तेज़ी से वार्ड में घुसा, अचानक दंग रह गया। रात आया आदमी वार्ड की फ़र्श पर एक तस्वीर बना रहा था। उसके हाथ में वह तस्वीर थी, जिसे रात फ़ाइल से निकालकर उसने अलग रख दिया था और वह तस्वीर उड़ते-पड़ते उस आदमी के हाथ लग गई थी। वार्ड की खुरदुरी फ़र्श पर मार्क्स-लेनिन की विशालकाय तस्वीर बड़ी ही जीवन्त उतरी थी। यह तस्वीर बनाते उस नए बन्दी को देख उसे अख़बार की कतरन वाले मानिक उस्ताद की याद आ गई। उसने अनुमान लगाया कि मानिक उस्ताद इसी तरह का आदमी रहा होगा। फिर उसका दिमाग़ बाबूजी द्वारा बताई घटना पर जा रूका। कतरन वाला मानिक उस्ताद बिना ज़ुबान का था....पटना की सड़कों पर तस्वीरें बनाने वाला चित्रकार भी बिना ज़ुबान का था और....रात उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया था। क्या यह भी बिना ज़ुबान का आदमी है? उसने पूछा-तुम वह मानिक उस्ताद तो नहीं जिसका बेटा पुलिस की गोली से मारा गया था और जो पटना की सड़कों पर आन्दोलनों का इतिहास गढ़ता रहा था....? जवाब में उस आदमी ने बस, अपना मुँह खोल दिया था। उसे समझते देर नहीं लगी। वह स्वयं को रोक नहीं पाया। चित्रकार से वह लिपट गया।

आज सोम का दिन था। अचानक जेलर आ गया। देर-सवेर उसे आना ही था। आज कुछ पहले ही आ गया था। वह रात आए कोरान्टिस बन्दी, जिस पर ख़तरनाक होने का आरोप था, को देखने आया था। अधिक सुरक्षा के ख़याल से उसे ज़िला जेल से तबादला करके केन्द्रीय जेल में भेजा गया था। उसके साथ जो काग़ज़ात आए थे, उन्हें पढ़कर जेलर सब कुछ जान गया था। उस जेल में वह अपने साथ गिरफ़्तार हुए लड़कों को विद्रोह भड़काने वाली तस्वीरों को बनाना सिखाया करता था। यही कारण था, कि उसे उन लड़कों से अलग कर दिया गया था। वार्ड की फ़र्श पर उसे तस्वीर बनाते देख जेलर की आँखें चढ़ गईं। वह गरजा और तस्वीर को अपने जूते के तलवे से मिटाने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन इसके पहले कि जेलर के जूते का तलवा तस्वीर के सीने पर पड़ता, वह कोरान्टिस तस्वीर पर लोट गया था। और जेलर का जूता उसके कलेजे पर चक्कर काट गया था। चित्रकार चीखा था और उसके मुँह से ख़ून का लोथड़ा निकलकर तस्वीर पर पसर गया था। चित्रकार की आँखें पल-भर के लिए बेचैनी से घूमीं थीं और फिर शान्त हो गई थीं। यह सब पल-भर में ही हो गया था और वह भौंचक्का होकर सब कुछ देखता रह गया था। इसके पहले कि चित्रकार की लाश उठाई जाती उसने सिर झुकाकर ससम्मान कहा था-'अलविदा, कामरेड मानिक उस्ताद....अलविदा।' और फिर वह फ़र्श पर पसरते लहू से तस्वीर के रंग को, सदियों तक के लिए पक्का बनाने की ख़ातिर अपनी अंगुलियाँ घुमाने लगा था।

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14 Aug 2016

दुखवा में बीतल रतिया


-----रामेश्वर उपाध्याय


उसने अपनी लचीली कमर को थिरकाना शुरू किया। घूंघट के पनहे को आगे बढ़ाकर नज़रों एवं मुखड़े के सहारे ऐसे रोमांचक हाव-भाव प्रदर्शित किये कि बस, लोग देखते रह गए। शामियाने के इर्द-गिर्द जूझती दर्शकों की भीड़ ने ऊँची आवाज़ों में शोर मचाकर उसकी नृत्यकला को दाद दी। भीड़ के बीच से ललकार की भाषा में एक ऊँची आवाज़ आयी .....जिउ जिउरे झरेलवा...... और लोग इस बात से वाक़िफ़ हो गये कि बाबू जालिम सिंह भी नाच का लुत्फ़ लेने आ जमे थे। यह कैसी बात कि झरेला गोसाईं का नाच हो और जालिम सिंह उपस्थित नहीं रहें। दस-दस के दो कड़कड़िया नोट, जालिम सिंह ने झरेला गोसाईं के ब्लाउज में खोंस दिए। दर्शकगण कुछ देर तक तालियाँ बजाते रहे थे। हरमोनियम मास्टर आवाज़ की रिक्तता को पूरा करने के लिए गाए जा रहा था.....एगो चुम्मा देके जइह हो करेजउ........।

              मेरे गाँव में हरेक साल दुर्गा पूजा के अवसर पर झरेला गोसाईं अपनी नाच पार्टी की मुफ़्त सेवा देता है। आस-पास के गाँव के लोग, कई-कई कोस पैदल चलकर, नाच देखने के लिए आते हैं। महुआ गाछ का मैदान दर्शकों की भीड़ से ठसाठस भर जाता है। इस साल लगातार दो दिनों तक कार्यक्रम चलता रहा। लोगों में इनाम देने की होड़-सी मच गई। मण्डली को इस साल अच्छी आमदनी हुई।

     झरेला गोसाईं की नाच पार्टी, अब इलाके की सबसे अधिक नाम वाली मण्डली बन गई है। पहले जब भिखारी ठाकुर की नाच पार्टी चलती थी, तब भी झरेला गोसाईं की पार्टी दो नम्बर पर थी। भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी पार्टी के सभी नामी-गिरामी कलाकार झरेला की पार्टी  में आ गए। चितकावर लाल जैसे विदूषक के झरेला की पार्टी में आ जाने से मण्डली की ख्याति काफी बढ़ गयी।

  गौशाला से सटा टोला गोसाईं टोल कहा जाता है। इस टोले में आठ-नौ परिवार गोसाईं लोग रहते हैं। परम्परागत रूप से इनका मुख्य धन्धा रहा है, किसी का इन्तकाल होने पर, श्राद्धकर्म में महापात्र का काम करना। गाँव-जवारों में गोसाईं परिवारों की कमी है। इसलिए, उनका इलाके पर एकाधिकार चलता है। लोग अक्सर मरते ही रहते हैं, अतएव, इनका धन्धा कभी मन्द नहीं पड़ता।
गाँव के लिए गोसाईं टोल की बहुत उपयोगिता रही है। इसके बावजूद यह टोला ज़माने से उपेक्षित सा रहा। बामनटोल की बात कौन कहे, चमरटोल के लोग भी, गोसाईं टोल से घृणा करते हैं। यदि कोई बाहर की यात्रा पर हो और रास्ते में किसी महापातर पर नज़र पड़ जाए, तो वैसा ही अपशकुन समझा जाता है, जैसे बिल्ली का राह काटना। लोग गोसाईं टोल में प्रवेश करने में भी हिचकते हैं। लोगों का मत है कि महापातर अपना धन्धा जमाने के लिए जिसे देख लेते हैं, उसी पर डीठ गड़ाकर, उसके मरने की कामना करने लगते हैं। बड़े-बूढ़ों का कहना है कि कुत्ते की दोस्ती, काटे तो बुरा, चाटे तो भी बुरा। गोसाईं टोला के कारण गाँव के लोग किसी आकस्मिक अनिष्ट के भय से सदा आतंकित रहते हैं। गाँव में किसी की जीनी-मरनी होने पर, तुरन्त उस घटना को गोसाईं टोल से जोड़ दिया जाता है। इस टोल को डायन-भूतिन का डेरा समझा जाता है।

    झरेला गोसाईं के बाबू ओझा-गुनी भी हैं और महापातर का काम भी करते हैं। काम सिखाने के ख्याल से वे तीन-चार बार झरेला को अपने साथ श्रार्ध कर्मों में ले गए। दसवाँ के दिन उनकी काफी इज़्ज़त होती और मुँह माँगा दान-दक्षिणा मिलता। अधिक से अधिक दक्षिणा लेने के लिए वे रूसा-फुली करते और सन्तुष्ट होने के बाद ही कच्चा दूध पीने की रसम पूरा करते।

श्राद्ध कर्म की अन्तिम प्रक्रिया होती है, महापातर द्वारा कच्चा दूध पीना। महापातर के दूध नहीं पीने पर मृतक की आत्मा को शान्ति नहीं मिलती और प्रेतात्मा, भूत बनकर परिवार वालों को दैनिक-भौतिक क्षति पहुँचाती है, ऐसा लोग मानते हैं। इस डर से लोग महापातर को नाराज़ नहीं करते और मुँह मांगा दान देते हैं। लेकिन बाद में महापातर को गालियाँ दी जाती हैं। दरअसल, यह एक टोटरम है कि महापातर को गाली देकर भगा देने से यम के पुन: आने की सम्भावना नहीं रह जाती।
     परिवार के परम्परागत पेशे में उसे बचपन से ही अभिरूचि नहीं रही। उसी समय से वह गिरधारी बाबा के मठ पर आता जाता था। बाद में, वह गिरधारी बाबा का चेला बन गया। गिरधारी बाबा मस्तमिज़ाज आदमी थे। गिरधारी बाबा के पास गाँव-जवार के साधु-सन्त से लेकर लँगा-लफँगा तक सभी पहुँचते। चोर जब चोरी करने के लिए निकलते तो बाबा का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते। कोई शरीफ़ आदमी किसी भले काम की शुरूआत के पहले बाबा का चरण छू लेना ज़रूरी समझता। सुबह से शाम तक मेला लगा रहता, बाबा के पास। चीलम पर गाँजा हमेशा सुलगता रहता। ढोलक और झाल हमेशा टनकते रहते। कभी-कभी नाच-वाच भी होता। एक तरह से गाँव का यही सार्वजनिक स्थान था। उस पर गिरधारी बाबा की विशेष कृपा-दृष्टि रहती थी। बाबा ने स्वयं उसे गाना-बजाना सिखाया। चैती, फगुआ, कीर्तन आदि गाँव के सामूहिक गायन के कार्यक्रमों में वह अच्छा ढोल बजाता था। कुछ दिनों में उसके लोक-गीत गाँव में लोकप्रिय बन गए। गाने-बजाने में उसने अच्छी ख्याति पा ली। थोड़े ही दिनों में वह गाँव के सांस्कृतिक जीवन का केंद्र बिंदु बन गया।

उसका रंग एकदम साफ था और उसके चेहरे पर गँवई रौनक और मासूमियत झलकती थी। आँखें बड़ी-बड़ी और नशीली लगती थीं। उसने अपने बाल बढ़ा लिए थे। चरखाने की लुंगी पहने, कंधे पर लाल रंग का अँगोछा डाले, किसी लोक-गीत का राग अलापते, किसी बधार में वह, मुझे अक्सर मिल जाया करता था।

अचानक सुनने में आया कि गिरधारी बाबा बोरिया-बिस्तर सहित लापता हो गए। बात ज़ोर पकड़ती गई क्योंकि झरेलवा का कोई पता नहीं था। यह बात ज़ोरों से फैली कि गिरधारी बाबा झरेलवा को लेकर भाग गए। गाँव के कुछ धनी-मानी लोग गिरधारी बाबा के इस चाल से बहुत खिन्न थे। बाबू जालिम सिंह गुस्से में आकर थाने में सनहा लिखवा दिए। उनके लोगों ने गिरधारी बाबा की कुटिया उजाड़ दी और चीज़ें तहस-नहस कर डालीं। अब बाबा का चरित्र गाँव वालों के सामने नुमाँया हो चुका था। कुछ लोग गिरधारी बाबा के पकड़े जाने पर जमकर पिटाई करने की योजना बना रहे थे।

               लेकिन कुछ ही दिनों के बाद, झरेला गोसाईं को एक टुटपूँजिया नाच-पार्टी में नाचते देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ था। जालिम सिंह ने उसे बुलवाकर गिरधारी बाबा के बारे में विस्तार से पूछताछ की थी। फिर एक बार लोग भ्रम में पड़ गए थे। गिरधारी बाबा के कट्टर समर्थकों का कहना था कि बाबा अपने योग बल से अन्तर्धान हो गए थे।

इस नाच पार्टी में वह तीन रूपये प्रति रात पर भर्ती हुआ था। मण्डली में पहले से कुल आठ जने थे और इक्कावन रूपये प्रति रात का सट्टा होता था। पहले पहल जब वह भर्ती हुआ था, वह गाँजा का चीलम सुलगाने, डुग्गी सेंकने और हारमोनियन का सन्दूक ढोने का काम करता था। मण्डली में रहकर कुछ ही दिनों में उसने नाचना भी सीख लिया।

झरेला गोसाईं के नाचने से मण्डली की ख्याति बढ़ी थी और मास्टर ने तुरन्त सट्टे की कीमत बढ़ा दी थी। वैसे भी मण्डली में नाचने वालों की कमी थी। केवल दो नर्तक थे। उनमें पहला कोई साठ-पैंसठ वर्ष का बूढ़ा हो चला था। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गईं थीं और गाल धँस गए थे। उसकी आवाज़ काँपती हुई निकलती थी। जब वह सज-धजकर नाचने लगता था तो ठीक अस्सी साल की सधवा बुढ़िया की तरह लगता था। अक्सर युवक दर्शक उसे मंच पर से भगाने का प्रयास करते। हां, बूढ़े-बुजुर्ग लोग उससे निर्गुण गाने की फरमाइश ज़रूर करते थे। उसके नृत्य में एक और ख़ासियत थी। वह कोरदार थाली की धार पर और बोतलों की गर्दन पर खड़ा होकर नाच सकता था। नाच के दौरान वह व्यायाम और योग की कई करामातें दिखाता था। दूसरा नर्तक उम्र में अधेड़ लगता था। लेकिन उसके गले की आवाज़ मधुर थी। दर्शक उसे काम-चलाऊ मान लेते थे। झरेला गोसाईं के मंच पर आते ही दर्शक उसके पीछे लट्टू हो जाते थे। इसलिए वह मण्डली की जान बन गया था।
उसके स्वाभिमान को ज़ोरों का धक्का लगा था, जब उसने किसी को लौंडा कहते पहले-पहल सुना था। हमारे यहाँ पुरूष नर्तकों को लौंडा कहा जाता है। उनका रंग-रूप और वेश-भूषा सुन्दरियों का होता है। उनके बाल लम्बे होते हैं तथा आँखों में काजल, ललाट पर बिन्दिया, पैरों में घुँघरू। बाल लम्बे-लम्बे नहीं होने पर ये नकली बाल लगा लेते हैं। छाती पर कपड़े का पुलिन्दा रखकर सुडौल स्तन बनाते हैं। हर तरह के श्रृंगार-प्रसाधनों से सज-धजकर वे नर्तकियों का हाव-भाव ग्रहण कर नाचते हैं।

            देश के कुछ हिस्सों में तो युवक को लौंडा कहकर सम्बोधन का आम प्रचलन है। लेकिन हमारे यहाँ किसी को इस शब्द से सम्बोधन कर देने का मतलब होता है, जान लेने-देने की नौबत आना। झरेला गोसाईं को इस शब्द ने तीर-सा बेधकर उसे तिलमिला दिया था। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया अचानक मर-सी गई थी। उसने अपने स्वाभिमान के चूर-चूर होने की असह्य पीड़ा को चुपचाप सह लिया था।
           अगले साल ही उसने नगीना साव की मण्डली पकड़ ली। नगीना साव की नाच-पार्टी की अच्छी ख्याति थी और चार-पाँच सौ रूपये का सट्टा होता था। इस मण्डली में पन्द्रह-सत्रह कलाकार थे। यह पार्टी लैला मजनू, सोरठा बृजभार, आल्हा-उदल,बेटी-बेचवा,परदेसियाऔर डाकू मानसिंह आदि नाटकों का मंचन भी करती थी। इस मण्डली में तीन-चार नर्तकों के अलावा दो नर्तकियाँ भी थीं। मण्डली में नर्तकियाँ केवल इसलिए रखी जाती हैं, क्योंकि महीन रंगबाज लोग लेडी को अधिक महत्व देते हैं। नाच-पार्टी का स्तर जानने के लिए वे पूछते, कि पार्टी में कितनी लेडी हैं?

                 इस मण्डली के पास श्रृंगार के अच्छे प्रसाधन थे और संगीत के अच्छे वाद्य यंत्र। इस मण्डली में आते ही झरेला गोसाईं की कला और निखर गई। कुछ ही दिनों में उसने मण्डली के तमाम नर्तकों को मात कर दिया। यहाँ तक कि दर्शक नर्तकियों के बदले झरेला गोसाईं की ही मांग करते। उसके गीतों और अंग-प्रत्यंगों के थिरकन का ऐसा भावपूर्ण सामंजस्य होता कि दर्शक आनन्द-विभोर हो उठते। इतनी सोहरत किसी भी मण्डली के किसी नर्तक को कभी नहीं मिली।

एक बार गाँव में किसी के घर बारात आई थी। नगीना साव की मण्डली नाच रही थी। उसमें रात के एक पहर बीत जाने पर झरेला गोसाईँ मंच पर आया था। उसने एक गीत गाया था .....आग लागे सईंया के...सुरतिया....दुखवा में बीतल रतिया......। इस गीत ने दर्शकों पर जादू-सा रोमांचक प्रभाव डाला था। एक के बाद एक लगातार फरमाइशें होती रही थीं। गाँव के सभी धनी-मानी लोग नाच का लुत्फ़ लेने आ जमे थे। झरेला गोसाईं पर इनाम के रूप में नोटों की बारिस होने लगी थी। इनाम देने की जैसे होड़ मच गई। उसके ब्लाउज़ में इतने अधिक रूपये नत्थी कर दिए गए थे कि ब्लाउज़ रूपये के छापा वाले का बना दिखता था।

        दो-तीन घण्टों तक दर्शकों ने उसे मंच से जाने की अनुमति नहीं दी। मेकअप के खेमे में कई नर्तक और दोनों नर्तकियाँ सज-धजकर बैठे रहे। लेकिन लोग तैयार नहीं थे, उनका नाच देखने के लिए। झरेला के पीछे लोग लट्टू हो रहे थे। जैसे-जैसे लोगों की फरमाइश होती गई, उसका उत्साह बढ़ता ही गया और अपनी कला को नए-नए ढंग से प्रस्तुत करके वह लोगों को चमत्कृत करता गया। आज वह स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस कर रहा था। लेकिन किसी भी चीज़ की एक हद होती है। लगातार तीन-चार घंटों तक नाचते-नाचते वह बिल्कुल थक गया था। गाने के साथ भाव-अभिव्यक्ति को संतुलित करने में कठिनाई होने लगी थी। हाथ-पैर बुरी तरह दुख आए थे। कमर थिरकाने पर पेट में चुभन होने लगती थी। उसने दर्शकों से हाथ जोड़कर क्षमा माँगी। लेकिन लोग तैयार नहीं थे। मुख्य रूप से गाँव के धनी-मानी और नाम-धाम रखने वाले तीन-चार लोग अड़ गए थे।

कला किसी के लिए हानिप्रद नहीं होती। लेकिन झरेला गोसाईं की कला का यह दुर्भाग्य रहा, कि उसे गाँव के दंगे का माध्यम बनना पड़ा।

         वैसे, घटना कोई विशेष नहीं थी।बस, बात इतनी हुई थी कि झरेला जब मंच से जाने लगा, तो जालिमसिंह ने अपने गले का सोने का हार उसे पहना दिया। यह जालिमसिंह की ओर से एक गाना की फरमाईश पूरी करने के लिए अग्रिम उपहार था। झरेला गोसाईं ने जालिमसिंह की फरमाईश पूरी की......हमरा उठता हो राजा जी दरदिया..... दर्शक इस गाने पर झूम से गए। और इसके बाद फरमाइशों का फिर तांता बंध गया। बालमराय ने अपनी चाँदी की बनी छड़ी देते हुए फरमाईश कर दी। नगीन्दर चौधरी ने अपने आदमी भिजवाकर घर से रूपये मंगवाए।झरेला गोसाईँ के लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। वह किसकी फरमाईश पूरी करता और किसकी नहीं। इसलिए, वह चुपचाप उठकर, मेकअप के खेमे में चला गया। बस, बात इतनी हुई थी कि बालमराय उबल पड़े। उनकी प्रतिष्ठा की हानि हुई थी। उन्होंने अपने आदमियों को झरेला गोसाईं को जबरन खींचकर लाने के लिए ललकारा। उनके आदमी अभी उठे ही थे, कि जालिमसिंह उसे बचाने के लिए आगे बढ़ गए। उनके साथ उनके अपने आदमी भी थे। इसी में जमकर लाठी चल गई। कई लोग घायल हो गए। भीड़ में भाग-दौड़ मच गई। नाच पार्टी के मास्टर का माथा फूट गया। झरेला गोसाईं को खींचकर कुछ लोग जबरन गाँव में ले गए।

फिर उसी रात, बालमराय की देहरी पर महफिल जमी थी। बालमराय अब गालियों के साथ फरमाइश करते थे। सुबह होने तक झरेला नाचता रहा था। एक बार तो वह गश खाकर गिर गया था। तब भी उसमें हिम्मत नहीं हुई थी कि वह बालमराय से दो क्षण आराम के लिए भी छुट्टी माँगता।
इस घटना ने गाँव के दलों के मतभेदों की खाई को और बढ़ा दिया। गाँव में झरेला गोसाईं की स्थिति सबसे अधिक असुरक्षित हो गई थी। गोसाईं टोल के लोग झरेला के लिए आगे बढ़ने और प्रतिरोध करने के लिए तैयार नहीं थे। इस घटना के कारण उसका सारा उत्साह निराशा में बदल गया। उसने नाचना-गाना बन्द कर दिया। नगीना साव की नाच पार्टी भी उसने छोड़ दी। इस साल के बाकी लगन में वह कहीं नाचने नहीं गया। घर ही पर रहने लगा, झरेला गोसाईं। अब वह काफी उदास रहने लगा था। गुनगुनाना वह भूल-सा गया था।उसके चेहरे की हँसी खो गई थी। दिन-ब-दिन वह मरियल-सा होता जा रहा था। उसका शरीर भी पीला पड़ने लगा था।

      कुछ ही दिनों बाद झरेला गोसाईं के बारे में ज़ोरों का प्रचार फैला कि जालिम सिंह ने झरेलवा को अपना खास लौंडा रख लिया है। यह अफ़वाह तब लोगों के विश्वास में बदल गई, जब जालिम सिंह के महथिनदाई वाले पन्द्रह कट्ठवा खेत पर झरेला गोसाईं का हल चल गया। लोगों का यह अनुमान था कि जालिम सिंह ने उस खेत की झरेलवा के नाम रजिस्ट्री कर दी। दरअसल यह जालिम सिंह की खानदान की रईसी परंपरा की अवहेलना थी। अबतक इस रईस कोठी में रखैलें रखने का रिवाज़ चला आया था। जालिम सिंह के पिता कौशिक सिंह के पास तीन-तीन रखैलें थीं। लेकिन जालिम सिंह ने रखैलें रखने के बदले लौंडा रख लिया।

अब झरेला गोसाईं का मुख्य काम जालिम सिंह की सेवा-सुश्रुषा करना, उनको रिझाना और उनका मनोरंजन करना-भर रह गया था। महीने में कभी एक बार महफिल भी जम जाती, जिसमें जालिम सिंह के अपने आदमी नाच-गाने का मजा लेते। जालिम सिंह की अनुमति के बगैर अब झरेला कहीं नाच-गा नहीं सकता था। जालिम सिंह ने झरेलवा की सुरक्षा की पूरी जिम्मेवारी अपने पर ले ली थी। वह जिधर जाता था, उसके साथ जालिम सिंह के एक-दो आदमी साथ ज़रूर जाते थे।

          लेकिन तीन-चार महीने बाद ही, झरेला गोसाईं ने अपनी अलग नाच-पार्टी बनाकर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। तीन-चार कार्यक्रमों में ही दर्शकों ने यह घोषणा कर दी, कि झरेला की नाच पार्टी भिखारी ठाकुर के बाद दूसरे नंबर पर थी। भिखारी ठाकुर के मरते ही, उसकी पार्टी इलाके की सर्वश्रेष्ठ पार्टी बन गई। जिस बारात में झरेला की पार्टी का सट्टा हुआ, तो समझिए कि वह शादी काफी धूम-धाम से हुई। नाच पार्टी को श्रेष्ठ स्तर पर पहुँचाने के लिए झरेला ने कम प्रयास नहीं किए। वह स्वयं आज तक पार्टी के मुख्य आकर्षण का केंद्र बना रहता था। उसके गाने के ढंग, भाव-प्रदर्शन की अदा और नाच की स्तरीयता में कोई तब्दीली नहीं आई थी। दर्शक उसके मुँह से इस गीत को सुनने के लिए बेचैन-सा हो उठते थे। ..........दुखवा में बीतल रतिया.......


हीरामन बुआ की लड़की जवान हो गई थी। उसकी शादी के लिए बुआ काफी परेशान थीं। घर में कोई मर्द नहीं था, जो वर ढूँढता और दूसरे कामकाज करता। हीरामन, यदि जीते होते, तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। वे अक्सर दारू पीया करते थे और छबीली पनेरिन के पास भी जाते थे। इसी से बाप-दादे की ज़मीन-जायदाद गर्क हो गई। हीरामन मरते-मरते ढेढ़-पौने दो बीघा जमीन और एक छप्पर-फूस मकान छोड़ गए। हीरामन, बुआ के गहने-वहने तो पहले ही चट गए थे। इसलिए उनके जीने या मरने से कोई अन्तर नहीं पड़ता था।

     बुआ के लिए जीवन-निर्वाह एक कठिन समस्या बन गई थी। कुछ लोगों ने बुआ को सुझाव दिया था, कि वे बाकी खेत-बधार को भी बेच दें। लेकिन बुआ ने ऐसा नहीं किया। वे निर्णय कर चुकी थीं, कि बेटी की शादी में ही खेत-बधार बेचेंगी। इसलिए बुआ के सामने खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की समस्या उठ खड़ी हुई थी। बुआ आधे की बटाईदारी पर महुआ का फूल चुनती थीं। महुआ के फूल चुनकर वे उसे सुखा देतीं और दारू बनाने के लिए गाँव के पनसारी-बनिया उसे खरीद लेते। फसल कटने के समय बुआ खेत-खेत घूमकर झड़े हुए दाने चुनती थीं। अवारा-अनेरिया गाय-बैलों का गोबर बटोरकर वे गोयठां पाथतीं और उसे बेचतीं। गाँव-पड़ोस में यदि किसी के घर शादी-वादी होती तो बुआ झुम्मर गाने जातीं। किसी का लड़का जनने पर वे सोहर गातीं और नेग लेतीं। नेग में बुआ को कभी-कभार धोती-साड़ी भी मिल जाते।

  हीरामन ने अपनी अधिकांश ज़मीन जालिम सिंह के हाथों बेची थी। इसलिए बुआ पहले जालिम सिंह के पास ही गईं। लेकिन जालिम सिंह ने ज़मीन खरीदने के प्रति कोई खास अभिरूचि नहीं दिखाई। बुआ हाथ जोड़कर गिड़गिड़ायी थीं, तब जालिम सिंह उनकी ज़मीन खरीदने के लिए तैयार हुए थे। लेकिन जालिम सिंह ने ज़मीन का जो दाम लगाया, वह बहुत ही कम था और बुआ उस भाव से संतुष्ट नहीं थी। गरजू समझकर जालिम सिंह ने कीमत नहीं बढ़ाई।

बालमराय के पास चलीं आईँ हीरामन बुआ। बालमराय नया पर धनी-मानी बने थे। कलकत्ता में उनका गाय-भैंस के दूध का बिज़नेस चलता था और उसमें अच्छी कमाई होती थी। साथ ही बालमराय खेत-बधार बढ़ाने में दिलचस्पी लेते थे। बुआ ने बालमराय के हाथ खेत की रजिस्ट्री कर दी।

         लेकिन खेत बिक जाने के बाद बुआ पर जैसे आफत आ पड़ी। जालिम सिंह बहुत खिसिया गए और उनके लोग कई बार बुआ को धमकी दे गए थे। राजपूत टोले के कुछ छोकड़े लंगई-लफंगई पर उतर आए थे। शाम को धुँधलका छाते ही बुआ के छप्पर पर ढेला फेंका करते थे। इससे बुआ डर जाती थीं और उसे रात-भर नींद नहीं आ पाती थी। उनके डर से बुआ अपनी लड़की को एक पल भी अकेला नहीं छोड़ती थीं।

       एक दिन बुआ गोसाईं टोला गईं थी। झरेला गोसाईं से वह मिली थीं। वह बुआ की बेटी की शादी में मुफ़्त नाचने पर तैयार हो गया था। बुआ की सहूलियत के लिए उसने बत्ती-शामियाने आदि के व्यवस्था की जिम्मेवारी भी स्वयं पर ले ली थी।

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गाँव से सटे शिवाला पर शामियाना लगा था। इसी में बारात टिकी थी। झरेला गोसाईं की नाच-पार्टी चल रही थी। आज झरेला गोसाईं के नाच में एक नया आकर्षण था, भीड़ लगातार बढ़ती गई थी। बालमराय और नगेन्द्र चौधरी भी आए थे, नाच देखने। लेकिन न जाने क्यों, जालिम सिंह नाच देखने नहीं आए।

जालिम सिंह अपनी कोठी में आदमियों के साथ बैठे हुए थे। दारू और गाँजे की चीलम के दौर चल रहे थे। उनके आदमी पीने-खाने में खो गए थे। लेकिन जालिम सिंह बेचैन से हो रहे थे। उनके कानों में एक सुरीली आवाज़ टकरा रही थी  ......आग लागे सईयाँ के सुरतिया....दुखवा में बीतल रतिया........ इस गाने को कैसे भूल सकते थे बाबू जालिम सिंह?  उनके अंदर बेचैनी का तूफ़ान मच गया था। उनके चेहरे के रंग तेज़ी से बदल रहे थे।

मंडप में शादी की रसम शुरू होने से पहले ही बुआ ने झरेला को शामियाने से बुलवाया था। जात-पांत का भेद किए बिना बुआ ने उसे भाई का रसम पूरा करने के लिए कहा था। झरेला मंडप में घुसा था और वर-वधू पर अच्छत-फूल छिड़क दिए थे। तब बुआ की आँखों में आँसू उमड़ पड़े थे। झरेला शामियाना के लिए लौट गया था।

लेकिन शामियाने तक वह पहुँच नहीं पाया था। गाँव से बाहर निकलते ही कुछ लोग उसपर टूट पड़े थे। कुछ देर तक लाठियाँ बरसती रही थीं। बाद में वह भैरो बाबा के पेड़ के नीचे वाले बरहम-चबूतरे पर जा गिरा था। चीख-पुकार सुनकर कुछ लोग इधर आए थे। टॉर्च की रोशनी में उन्होंने झरेला गोसाईं को बेहोश पाया। उसके नाक के खून के फव्वारे चल रहे थे और सर फट गया था। बैलगाड़ी पर लादकर उसी रात उसे आरा लाया गया था और अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
दो-तीन दिनों बाद मैं अस्पताल गया था। सर्जिकल वार्ड के तेरह नंबर बेड पर था वह। उसके एक पैर पर प्लास्टर चढ़ा था और दोनों हाथों को कमानियों के सहारे सीधा बांध दिया गया था। मेरे सिरहाने पहुँचते ही उसने आँखें खोल दी थी। उसके आँखों से आँसू के बूंद छलक गए थे।मैंने पूछा था---

----कैसे हो अब ?

---- अभी भी जी रहा हूँ भईया ! उसका गला रूँध-सा गया था।

---- कौन-से लोग थे ?

---- अपने ही लोग ! वह डबडबा गया था।

---- जालिम सिंह के आदमी तो नहीं थे ? मैंने फिर पूछा था।

---- .......... उसने कोई जवाब नहीं दिया।

----- माला कहाँ है ? एक पल बाद उसने पूछा।

----- वह ससुराल चली गई। लेकिन हीरामन बुआ तो पागल हो गई हैं। मैंने उसे बताया। उसने एक लम्बी साँस ली थी। फिर मैं लौट आया था।

          एक-सवा महीने बाद झरेला अस्पताल से मुक्त होकर गाँव आया। अब वह घर से बाहर नहीं निकलता। वह अभी ठीक से चल-फिर भी नहीं सकता। उसके दाँए पैर पर अब भी सेंधा नमक और कड़ुआ तेल रगड़ा जाता है। एक दिन मैंने उससे पूछा----अब क्या करोगे झरेला ?

---- अब नाच तो सकता नहीं भईया। अब बाबू के साथ कच्चा दूध पीने जाया करूँगा....उसके इस जवाब ने मुझे भीतर से बाहर तक झकझोर कर रख दिया। उसके मन में दो बातों का बहुत दुख था। एक तो वह अब नाच नहीं सकता और दूसरे, लोग उसके नृत्य-कला को बहुत जल्द भूल गए। आज वह यदि किसी से दस पैसे भी माँगे, तो पैसा देने वाला बिना उसे देखे आगे बढ़ जाएगा।

             उसी रात तीसरे पहर आवारा कुत्तों ने भौंककर मेरी नींद तोड़ दी। रात के शान्त-स्तब्ध वातावरण में तैरती मन्द हवा के साथ एक सुरीली आवाज़ कानों तक आ रही थी ......आग लागे सईयाँ के सुरतिया.....दुखवा में बीतल रतिया........कुछ पल बाद यह आवाज़ मन्द पड़ती गई। तभी मुझे एहसास हुआ कि बगल की कोठी से एक पैशाचिक हँसी का बवंडर उठ रहा है। जालिम सिंह अट्टहास कर रहे थे। इतनी रात गए। झरेला की सुरीली आवाज़ जालिम सिंह के अट्टहास के नीचे दबती चली गई।

लेकिन, मुझे ऐसा महसूस होता है कि झरेला गोसाईं अभी आधा से अधिक ज़िंदा है और आधा से कम ही मरा है....
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