(कहानी) --रामेश्वर उपाध्याय
मेरी डायरी के
अज़ीज़ पन्नो !
एक लम्बे अरसे बाद, मैं तुम तक पहुँच पाने में सफल हो पाया हूँ। जिस दिन
से, जिस क्षण से, तुम लोगों से अलग हुआ, तभी से तुमसे फिर से जुड़ जाने के लिए
बेचैन रहा। बहुत प्रयत्न किए। लेकिन, हर बार तुम तक पहुँचना जटिलतर होता गया।
मित्रो, मैं तुमसे अलग रहकर कितना तबाह हुआ। क्षण-क्षण, हर निमिष, कितनी
कठिनाई से बिताए........हर क्षण, एक वर्ष की तरह बिताया। पूछो-- क्यों, कैसे और
कहाँ...?
मुझे वह तारीख़ भी याद
है, सोलह फ़रवरी, चौहत्तर, दिन रविवार। प्रात: नौ बजे, कॉलेज जाने के
लिए तैयार हो रहा था। तभी डाकिया तार दे गया। फाड़कर देखा। बाबूजी का था.....शीघ्र
आओ....अंग्रेज़ी में एक छोटा-सा वाक्य था। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ बाबूजी का तार
देखकर। मेरे जीवन में बाबूजी का मेरे नाम यह पहला ख़त या तार था।
मेरे ज़ेहन में कई सवाल एक
साथ हलचल मचाने लगे थे। सोचने लगा.....क्यों जाऊँ मैं ?आज उन्हें अचानक मेरी
क्या ज़रूरत आ पड़ी जो तार ठोक दिया ? जिस दिन पढ़ाई के पैसे
देने थे, उसी दिन बदले में भद्दी-भद्दी गालियाँ देते थे। वही गालियाँ जो कभी थाने
में अपराधियों से सलूक करते समय दिया करते थे------ देखूँगा जो पढ़कर नवाब
बनोगे....! उनकी अनुमति न मिलने के बावजूद मैं पटना के लिए चल पड़ा
था, तो उन्होंने कहा था-----ख़बरदार, जो फिर कभी घर में पाँव डाले.... टाँगें काट
लूँगा.......।
मैं नहीं लौटा घर, तीन
वर्षों तक नहीं लौटा। यह सोच-सोचकर भी कि माँ दिन-रात रो-बिलखकर बीमार पड़ गई होगी
; छोटी बहन तुलसी रोज़ शिव बाबा पर जल चढ़ाकर कहती होगी----दुहाई झारखंड
बाबा की, मेरे भईया को घर लौटा दो। माँ की ममता मुझे बुरी तरह आहत करती थी, तुलसी
का प्यार किसी चुम्बकीय शक्ति की तरह मुझे गाँव की ओर खींचता था। लेकिन ऐन मौके पर
मेरे अन्दर का समन्दर साथ दे देता था । आँखें झर जाती थीं और मैं तनाव और
शोक-पीड़ा से मुक्त हो जाता था ।
तुम तो जानते हो मेरे
प्रिय पन्नो ! वे बहुत कठिनाई के दिन थे। न कहीं खड़ा हो पाने की जगह
और न पेट भरने के लिए जेब में पैसे । पटना में इधर-उधर मारा-फिरा, रोज़ अस्थायी
डेरा बसाता और उजाड़ता चलता था। कभी बाँस घाट के उस खुरदुरे फ़र्श वाले चबूतरे पर
, जहाँ प्रतिदिन मुर्दे जलाए जाते थे। तो कभी महेन्द्रूघाट की छत पर, कभी पटना
स्टेशन के सामने वाले पार्कनुमा गोलम्बर की भीगी घास पर और कभी लॉन में खुले आकाश
के नीचे।
नौकरी के लिए इस दफ़्तर से उस
दफ़्तर मारा-मारा फिरता था। थक गया था। अख़बार वाले भी ‘सिक्युरिटी-मनी’ की माँग करते थे। सिनेमा
टिकट ब्लैक करना एक अच्छा धन्धा हो सकता था । लेकिन उतने पैसे होते तो अख़बार ही
क्यों नहीं बेचता।
वे अन्तिम तीन दिन कैसे
बीते, न पूछो यारो। जेब मुझे कटु शब्दों में उलाहना देने लगती थी.....मैं तीस पैसे
की तीन रोटियाँ महावीर स्थान के फुटपाथ से ख़रीदता था और खाकर मन्दिर में जाकर
पानी पी लेता था। उन दिनों मन्दिर के देवता में मेरी आस्था नहीं रह गई थी। मन्दिर
में केवल पानी पीने जाता था।
चकाचौंध भरे उस महानगर में
मुझे प्रकाश की एक किरण भी दिखाई नहीं पड़ती थी। मेरे सामने दूर-दूर तक गहन
अन्धकार फैला हुआ था । उस दिन तो ऐसा लगा, कि घुटने टेक देने के अलावा कोई उपाय
नहीं है। मैं बहुत निराश और हताश हो गया था और सोच लिया था कि आज कोई प्रबन्ध नहीं
हो पाया तो कल गाँव लौट जाऊँगा। लेकिन उसी दिन, मुझे एक नया जीवन मिल गया था।
डेयरी कॉरपोरेशन के डिपो
मैनेजर ने मुझे एक नौकरी दे दी थी। तेरह नम्बर डिपो पर मुझे दूध की बोतलें बेचनी होती थीं। रोज़ तीन रूपये का
वेतन देता था वह। वे बहुमूल्य तीन रूपये, जो मेरे अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए
बहुत ज़रूरी थे, बहुत ज़रूरी.....वरना मैं झुक गया होता, टूटकर बिखर गया होता। उन्हीं तीन रूपये रोज़ के बल पर
मैंने इंटर में प्रवेश लिया था। किताबें ख़रीदीं। पेट भरा और टाँगें पसारने के लिए
दो गज़ ज़मीन का जुगाड़ कर पाया था।
उन दिनों बाबूजी को मेरी कोई
चिंता नहीं थी। कहीं तहक़ीक़ात भी नहीं की, कि मर गय़ा या ज़िन्दा भी है और उस दिन
उनका तार आया-----शीघ्र आओ, मेरा पता-ठिकाना उन्हें निश्चय ही मेरे गाँव के
प्रोफ़ेसर, प्रसाद बाबू ने दिया होगा। क्योंकि मैंने तो कभी भी उन्हें अपना पता
नहीं बताया। तीन वर्षों में उन्हें एक भी ख़त नहीं लिखा था।
मेरे गाँव पहुँचने पर पूरे
गाँव में हल्ला मच गया था। रमुआ आया है...रमुआ, दारोगा जी का रमुआ तीन साल बाद घर
लौटा है.......
माँ को देखकर मुझे झटका लगा
था। पहले तो मैं उसे पहचान ही नहीं सका था। लेकिन कुछ ही क्षण बाद अनुभव किया, कि
वह बुढ़िया, मेरी माँ ही थी। विगत तीन वर्ष उस पर तीस वर्षों की छाप छोड़ गए थे।
जैसे, तीस वर्षों की उम्र उस पर जबरन थोप दी गई हो। उसके चेहरे पर झुर्रियों का
जाल-सा बिछ गया था। अधिकांश बाल सफ़ेद हो गए थे।
उसके पैर छुए, तो वह
मूर्छित-सी हो गई। मातृत्व सह नहीं सका, संयोग और वियोग की मिश्रित पीड़ा। उसकी
आँखें काफ़ी देर तक झरती रही थीं।
तुलसी अब बड़ी हो गई थी। तीन
साल पहले वह मेरी गोद में अक्सर लोट जाया करती थी। लेकिन उम्र और शारीरिक विकास का
ख़याल कर अब वह ऐसा नहीं कर सकती। उसने आकर मेरे पैर छुए। मेरा मन बोझिल हो गया
था।
बाबूजी आँगन में आए तो मैं खटिया
से उठकर खड़ा हो गया। हिम्मत नहीं हुई कि उनसे आँखें मिला सकूँ। इसके पहले कि
सँभलता, बाबूजी बोले--- बैठ जाओ.....शुष्क कठोर शब्द। झुककर उनके पैर छुए।
-----आपने तार दिया मुझे ? मैंने एक सीधा-सा सवाल
पूछा।
----यूँ ही बुला लिया।
---- ठीक है, मैं कल सुबह ही वापस चला जाऊँगा।
-----नहीं, अभी कुछ दिन ठहरोगे.......उनकी आवाज़ में सख़्ती थी।
उनका सामना कर लेने के बाद माँ के पास गया। वह चारपाई पर बिना बिस्तर डाले
लेटी-लेटी सिसक रही थी। मैं गया तो और फफककर रोने लगी। वह मुझसे बहुत कुछ कहना
चाहती थी, लेकिन गला रूँध जाता था, रूलाई बन्द नहीं होती थी। इसीलिए, वह मुझे कुछ
भी बता नहीं सकी।
मेरे बाबूजी कभी सचमुच के बाबूजी
थे, जैसे सबके होते थे। हमें लाड़-प्यार करते थे। गोद में बिठाकर क..ख..ग...घ... पढ़ाया करते थे। उस समय नई-नई
नौकरी थी बाबूजी की, वे बेहद ईमानदार आदमी थे। लन्द-फन्द से बचते थे। रिश्वत की
बात करने वालों को हवालात में बन्द कर देते थे। सच्ची रिपोर्ट पेश करते थे। कई
मुद्दों पर अपने साहबों से भी लड़ जाते थे---न्याय के लिए, सच्चाई के लिए। तब हम
तीन भाई थे—मदन भाई, शामू भाई और मैं। तुलसी छोटी थी। एक भरा-पूरा खुशहाल परिवार
था हमारा।
बाबूजी अपने तबादले के कारण
परेशान रहते थे। एक थाने में जाकर अभी डेरा जमता नहीं था कि डेरा उखाड़ने की नौबत
आ जाती थी। किसी भी थाने में तीन-चार महीने से अधिक टिक नहीं पाते थे। ऐसा केवल
इसलिए होता था, क्योंकि बाबूजी अपने साहबों को ख़ुश नहीं रख पाते थे। न पार्टी
देते थे, न हुज़ूर को सलामी। बस, बात बिगड़ जाती।
एक दिन घर में कोहराम मच गया। बाबूजी को सौ रूपयों की सख़्त ज़रूरत थी। एक बंगाली लड़की को कुछ गुंडे
भगाकर लाये थे। बाबूजी ने बड़ी बहादुरी से गुंडों को खदेड़कर लड़की को अपनी हिरासत
में ले लिया था। उस लड़की को ट्रेन-किराये के पैसे देने थे। बाबूजी अपने स्टाफ़ के
लोगों से मदद माँगकर असफल हो चुके थे। अन्तत: बाबूजी माँ के पास आए
थे और माँ के गहनों की माँग करने लगे थे। बस, इसी पर बात बढ़ गई थी। माँ अड़ गई थी
और बाबूजी को फटकारती रही थी---वो देखो, छोटा दारोगा रमेश बाबू को, कमा-कमाकर कोठा
पिटा लिए। एक ई साहेब हैं कि मेरा मंगलसूत्र बेचने पर तुले हैं.....।
उस दिन बाबूजी की
करारी हार हुई थी। हम सभी भाई-बहन माँ को समर्थन देते रहे थे और बाबूजी की स्थिति
अत्यंत हास्यास्पद हो गई थी। उस दिन बाबूजी अपने जीवन में पहली बार खूब रोए थे।
उस दिन हमारे घर में एक
बनिया प्रवेश कर गया, अपने पैर जमाने के लिए जगह बनाने लगा। जैसे-जैसे बनिया घर
में जगह बनाता गया, बाबूजी घर के बाहर होते गए। और एक दिन समय आया कि उस बनिये ने
हमारे घर पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया। दुख यह कि, अनजाने में हमारे परिवार के सभी
सदस्य बाबूजी और बनिये के बीच की लड़ाई में बाबूजी का साथ न देकर बनिये का साथ
देते रहे। हमें गाड़ी अच्छी लगती थी। कपड़े, गहने और बर्तन पसन्द आते थे, इसलिए हम
उस बनिये को पसन्द करने लगे थे.....बाबूजी घर में उपेक्षित हो गए। बनिया तभी से अपने परम्परागत काम
में लग गया। उसे हर समय केवल पैसे की धुन रहती थी। केवल मुनाफ़े की चिंता उसे हर
क्षण सताती थी।
बस.....मुनाफ़ा....मुनाफ़ा....मुद्रा....रिश्वत....सलामी.....पैसा......इसके
अतिरिक्त उसके दिमाग़ में कुछ नहीं होता था।
क़ब्र के किनारे खड़ी बुढ़िया से बनिये ने कहा---दो सौ गिन दोगी तो
तुम्हारे बेटे का नाम डाका कांड में नहीं दूँगा.....यदि जनकिया को मेरे पास नहीं
भेजती तो गुंडे उसे उठाकर ले जायेंगे......बनिये ने बहुतों को बहुत कुछ कहा और सभी
उसकी गिरफ़्त में आए, बिना उसके अतिरिक्त प्रयास के....।
कुछ ही दिनों में वह मालामाल हो गया। मुद्रा का राक्षस बन बैठा।
उसने पूरे परिवार को अपने ही रंग में रंग देने की भरपूर कोशिश की। उसने मदन
भाई और शामू भाई को एक रात पैसे दिए। जिस शिक्षक ने उनकी पढ़ाई के लिए दो-चार बेंत
लगाए, उसे उसने थाने में बुलाकर बुरी तरह पीटा और चालान कर दिया। मदन भाई पर उसकी
पूरी-पूरी परछाँही पड़ी। वह मदन भाई को पैसे देकर शराब की बोतलें लाने के लिए शहर
भेजता था। मदन भाई को जल्दी ही शराब की लत लग गई। वे जुआ भी खेलते थे और वैश्यागमन
उनके लिए आम बात हो गई थी। वे एक बार माँ की सन्दूक से कुछ गहने भी उड़ा ले गए थे।
उस दिन मदन भाई बनिये की बोतल लाने ही शहर गए थे। लेकिन वे शाम तक नहीं
लौटे और बनिया उन पर बहुत बिगड़ा। रात-भर भद्दी-भद्दी गालियाँ बकता रहा था। दूसरे
दिन भी मदन भाई नहीं आए तो हम लोगों की चिंता काफ़ी बढ़ गई। तीसरे दिन सुबह किसी
कोठे के नीचे बहते नाले में मदन भाई की लाश मिली थी। लाश थाने में आई थी। बनिये ने
मदन भाई की लाश पर कई लात लगाये और थूका। माँ, तुलसी और हम दोनों भाई, मदन भाई की
लाश देखने के लिए तड़पते रहे, लेकिन बनिये ने हमें थाने तक जाने की अनुमति नहीं
दी। मदन भाई का श्राद्ध-संस्कार भी नहीं कराया उसने।
उस दिन की घटना याद कर आज भी
रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रिय पन्नो। आज भी बहुत डर लगता है। बनिये के कारण पूरा
परिवार संकट में पड़ गया था। पूरा गाँव लाठी-भाला लेकर हमारे क्वार्टर को घेरे
खड़ा था। वे बनिये को भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रहे थे और दरवाज़ा तोड़कर अंदर
प्रवेश कर जाने पर उद्धत हो आए थे। हम लोग एक कमरे में बैठकर रो रहे थे। घर में
बनिया नहीं था। माँ ने हमें अपने आँचल से ढँक रखा था—जैसे हमारी रक्षा का बेहतर
उपाय कर रखी हो, लेकिन वह उसका भ्रम था। भीड़ इतने गुस्से में थी कि कचूमर निकाल
देती।
वे लोग किवाड़ तोड़कर आँगन में
घुस आए थे। माँ के बहुत कहने पर भी उन्हें यक़ीन नहीं हुआ था और उन्होंने हर कमरे
की तलाशी ली। हमें रोते देख उन्हें किसी तरह दया आ गई, वरना वे हमारे परिवार को
समूल नष्ट कर जाते। अंत में वे लौटे थे, इस प्रतिज्ञा के साथ, कि गाँव के अपमान का
बदला ज़रूर लिया जाएगा-----हिरामन बुआ की बेटी की इज़्ज़त पूरे गाँव की इज़्ज़त
है।
माँ दूसरे ही दिन गाँव लौट
आने के लिए तैयार हो गई। बनिये की अनुपस्थिति में ही हम गाँव चले आए, बिना इस बात
की चिंता किए, कि बनिया हमारी इस भूल के लिए हमें माफ़ नहीं करेगा और आतंक मचाकर
रख देगा।
और अभी बहुत दिन नहीं बीते थे कि
बनिया भी घर चला आया। वह सस्पेंड होकर आया था। गाँव वालों का ग़ुस्सा उबल पड़ा था
और उन्होंने बनिये पर चौतरफ़ा आक्रमण कर दिया था। बनिया इस लड़ाई में हार गया था।
उसके व्यवसाय का वह लाइसेंस छिन गया था , जिस लाइसेंस का दुरूपयोग करके वह गाँव
वालों, ग़रीबों का शोषण करता था। उन्हें तबाह करता था और उनकी इज़्ज़त-आबरू लूटा
करता था।
हमें विश्वास था कि गाँव आकर बनिया
फिर बाबूजी में तब्दील हो जाएगा। लेकिन यह भ्रम साबित हुआ।
तुलसी ने मुझे बताया कि मुझे मेरी शादी के लिए
बुलाया गया था। बाबूजी के इस सुनियोजित षड्यन्त्र के बारे में सुनकर मुझे ज़ोरों
का धक्का लगा था। बताया गया कि पहले तो शामू भाई की शादी ही तय हुई थी। शामू भाई
पर बाबूजी दबाव तो डाल सकते थे, पर ऐसा करने से वे डरते थे। इधर नौकरी जाने के बाद
बाबूजी का रूतबा दिन-ब-दिन घटता गया था। जबकि शामू भाई का प्रभाव-क्षेत्र बढ़ता
गया था। शामू भाई की गाँव के कुछ ऐसे धाकड़ लोगों से अच्छी निकटता हो गई थी, जिनसे
बाबूजी टकराने से डरते थे।
जब शामू भाई दो टूक जवाब दे गए, तो
बाबूजी की गिद्ध दृष्टि मुझ पर पड़ी। एक असहाय, कमज़ोर, टूटे और बिखरे हुए आदमी
पर....और उन्होंने प्रसाद जी से मेरा ठिकाना लेकर तार ठोक दिया---कम सून।
बहुत साहस जुटाकर पटना लौटने का निश्चय किया। मेरे अज़ीज़ पन्नो, तुम तक
पहुँचने के लिए कृत संकल्प था। इस बार तुलसी कहने लगी थी। भैया ! हमें भी साथ लेते चलो,
....नहीं तो.....उसकी आँखें डबडबा गई थीं। मैं तुम तक पहुँचने के लिए चला भी,
लेकिन दरवाज़े पर ही बाबूजी से सामना हो गया। वे आँखें तरेरे खड़े मिले।
मेरी बाँह पकड़कर बाबूजी मुझे अपने कमरे में ले गए और बाहर से कुंडी चढ़ाकर
ताला ठोक दिया।तीसरे दिन जब मुझे कमरे से बाहर निकाला गया, तो मेरी नज़र बाहर देहरी में
खड़े लोगों पर पड़ी थी। मैं रो-रोकर और बिना खाना खाये बहुत कमज़ोर हो गया था। और
मुझ में चल-फिर पाने की शक्ति भी नहीं रह गई थी। जब वे मुझे बाहर ले जाने लगे , तो
पीछे मुड़कर एक नज़र फेंकी। देखा, माँ और तुलसी अपनी-अपनी जगह पर फफक-फफक कर रो
रही थीं और मुझे निर्मिमेष आँखों से देखती रह गई थीं।
आँगन से निकालकर मुझे बाहर लाया
गया। वहाँ पहले ही से एक जीप खड़ी थी। मुझे जीप की पिछली सीट पर बैठाया गया। मेरे
अगल-बगल दो व्यक्ति बैठे। सामने वाली सीट पर तीन आदमी जम गए। बाबूजी आगे वाली सीट
पर थे। गाड़ी चल दी और मुझे यह भी पता नहीं था कि मुझे कहाँ ले जाया जा रहा था।गाड़ी अपने पूरे वेग से शहर की ओर
जाती सड़क पर सरकती जा रही थी। जीप में कुल सात आदमी बैठे थे। बाबूजी के अतिरिक्त
जो लोग बैठे थे, वे मुझसे सर्वथा अपरिचित थे। उनके चेहरे देखने से ही खूँखार लगते
थे।
शहर के निकट के एक मन्दिर के समीप जाकर जीप रूकी थी। मुझे मन्दिर के अंदर
लाया गया था। वहाँ पहले से ही पंडित तैयार बैठा था। उस लड़की को, जो एक कोने में
घूँघट काढ़े बैठी थी, मेरे सामने लाकर बिठा दिया गया। लड़की के घरवाले भी वहाँ
मौजूद थे। वे सभी हमें घेरकर चारों ओर से खड़े थे। मैं जिधर निगाह उठाता बस भौंहें
चढ़ी हुई होतीं। अंतत: थककर मैं सामने बैठी लड़की पर केंद्रित हो गया था। उस
समय मेरी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि जो सामने बैठी थी, वह कोई लड़की थी या
साठ साल की बुढ़िया...।
एक एहसास मेरे अंदर में दूर तक
जाकर मुझे बार-बार कुरेदने लगा था.....तुम बँध रहे हो....तुम बाँधे जा रहे हो.......तुम
जकड़े जा रहे हो.......।
उस रात, मेरी सुहागरात थी। एक
होटल में बाबूजी ने कमरा किराये पर तय किया था। मुझे उस कमरे में उस लड़की के साथ
धकेल दिया गया था और बाहर से कुंडी चढ़ा दी गई थी---- .....सुहागरात मनाने के लिए।
सुहागरात मन गई। मन क्या गई, किसी
तरह कट गई। चारपाई की एक छोर पर मैं दुबककर लेटा था और दूसरे छोर पर पड़ी वह लड़की
मुझे टुकुर-टुकुर देखती रही थी। वह रो रही थी और मैं भी रो रहा था। वह कुछ नहीं
बोल रही थी और मैं भी कुछ नहीं बोल रहा था। हमें कमरे के सन्नाटे ने बुरी तरह जकड़
लिया था। हम दोनों रात-भर अपनी-अपनी छोर पर पड़े एक-दूसरे को समझने की कोशिश करते
रहे थे.....लेकिन उस फ़ासले के बीच इतनी सारी बातें, इतनी भयावह घटनाएँ मौजूद थीं
कि उनसे उलझे बिना एक-दूसरे को समझ पाना कठिन था। रात-भर में हमारी आँखें सूखी
नहीं, बल्कि सूज गई थीं।
बाबूजी कमरे के बाहर अपना
आसन जमाये हुए थे और खाँस-खाँस कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे थे। यह एहसास
सैकड़ों काँटों के एक ही बार चुभने की पीड़ा की तरह था।
मैं यह नहीं जानता था कि वह लड़की
कौन थी, कहाँ की थी और उसने मुझसे शादी करना क्यों स्वीकार किया.....विद्रोह क्यों
नहीं किया.....?विद्रोह की बात जैसे ही दिमाग़ में आई कि मैं हीनभाव से
ग्रस्त हो गया....वह तो अबला है ...तुम क्यों नहीं कर पाये विद्रोह...? यह सवाल मुझे अंदर से
बाहर तक झकझोर गया।
उसके बाद मैं एक मशीन बना दिया गया.....एक ऐसी मशीन, जो बाबूजी की हर
आज्ञा का पालन करने लगी। इस विचार से एकदम
मुक्त होकर, कि क्या ग़लत होता है और क्या सही? यदि आदेश मिला, बैठ जाओ
.....तो बैठ गया...खड़ा हो जा तो खड़ा हो गया और आँखें बंद करके सो जा, तो सो गया।
वैसे, जैसे स्विच ऑन करने पर मशीन अपना काम ख़ुद-ब-ख़ुद करने लगती है। बाबूजी ने
जैसे-जैसे कहा, मैंने वैसे-वैसे ही किया.....एक मशीन की तरह।आदमी से मशीन बनने की
यह प्रक्रिया झेलना आसान नहीं है मेरे मित्रों.....बहुत ही कठिन है।शायद इसी
प्रक्रिया ने मेरे अंदर के समंदर को सुखा दिया, उसे जल रहित खोखला गड्ढा बनाकर
छोड़ दिया। कीचड़ से भरा गड्ढा। यही कारण है कि अब मन में बवंडर तो उठते हैं,
लेकिन ज्वार-भाटा नहीं आते। बूँदें नहीं छलकतीं.....।
एक थी माँ, बिलकुल पगली थी। रो-रोकर
आँखों को बर्बाद कर रही थी। जीवन-भर लात-जूते से पिटती रही, फिर भी सही को सही और
ग़लत को ग़लत कहना नहीं छोड़ा। वह बनिये का अंत तक विरोध करती रही। अपनी सीमा तक
उसने साथ दिया और फिर साथ छोड़कर चली गई। सदा-सदा के लिए।
माँ के प्राण उस दिन निकले, जिस दिन मुझे जबरन पिता करार दिया गया, जिस दिन
मुझ पर जबरन पिता की ज़िम्मेदारी ‘थोपी’ गई। मैंने कभी अपनी
पत्नी के साथ सहवास नहीं किया.....और जब शादी के आठ महीने बाद ही एक लड़की पैदा
हुई तो माँ को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ। तुरंत कूच कर गई इस दुनिया से।
चलने से पहले उसने तुलसी
के कान में कहा था-----तुम्हें बहन पैदा हुई है रे----उसका ख़याल रखना और उसने
तुलसी की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा नहीं की ।
जिस गाँव की वह लड़की थी, वहाँ बनिया थानेदार रह चुका था। नौकरी जाने के
बाद भी वह वहाँ आता-जाता रहता था...रूपये थे...गाड़ी थी, इसलिए उसके घरवालों को
बनिये का वहाँ आना-जाना बुरा नहीं लगता था। जब बनिये के कारण उन लोगों की बदनामी
होने लगी तो बाबूजी ने उन्हें आश्वासन दिया था। आपकी बेटी मेरी भी कुछ लगती
है....मैं कराऊँगा इसकी शादी......।
बनिया अपने काम में शत-प्रतिशत सफल
रहा। वैसे यह बाबूजी की असफलता कही जा सकती है। लेकिन बाबूजी इतने निश्चल और
निर्दोष थे कि ऐसे षड्यंत्रों की व्यूह-रचना करना उनके वश की बात नहीं थी। निश्चय
ही बनिया अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह सब करता चला गया...।
तो मेरे साथियो। आज भी मेरे घर पर उसी बनिये का कब्ज़ा है और मैं अपने घर के
सामने ही बेघर बनकर खड़ा हूँ....बनिया अब नहीं चाहता कि मैं या तुलसी उस घर में
रहें, क्योंकि हमारे रहने से उसके काम में बाधा पड़ती है.....रंगरेलियाँ मनाने
में....गुलछर्रे उड़ाने में....
जब तक मैंने उसकी बात मानी, वह मुझे पालता रहा। जैसे ही उसके आदेश के
विपरीत गया, उसने मुझे दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका। बनिये का यही चरित्र होता
है मित्रो...इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।मित्रो ! इस बनिये की उपस्थिति
हर जगह के लिए ख़तरनाक है। इसने मुझे और मेरे जैसे हज़ारों-लाखों को बर्बाद किया
है। लूटा है...।
लेकिन ,बनिया अब दिन-ब-दिन कमज़ोर होता जा रहा है.......निश्चय ही कल मैं
उसे अपने घर से निकाल फेकूँगा, ऐसा मेरा विश्वास है। बशर्ते कि तुम मेरे साथ रहो।
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