(कहानी)
--रामेश्वर उपाध्याय
बिसराम प्रसाद
जल्दबाज़ी में था। उसने अख़बार के बंडल को खोल दिया और दनादन गिन गया तीन
सौ प्रतियाँ। कचहरी खुलने का वक़्त हो गया था और अख़बार की बिक्री के लिहाज़ से
देर करना अब मुनासिब नहीं था।उसने बंडल के ऊपर का एक अख़बार उठाया और उलट-पुलट कर देखने लगा,
ताकि अख़बार के मुख्य टाइटिल्स दिमाग में रहे। सुर्ख़ियों
के शीर्षक यदि ज़ुबान पर नहीं रहे तो अख़बार ख़रीदने वालों पर कैसे चल पाएगा
बिसराम प्रसाद का जादू। अख़बार बेचने के संबंध में बिसराम प्रसाद की साफ़ समझदारी
है कि अख़बार में छपे चाहे जो कुछ, बिक्री
के लिए बिना लड़खड़ाए ज़ुबान का चलना ज़रूरी है। बिसराम प्रसाद सुर्ख़ियों में
मिर्च-मसाला लगाकर गज़ब के शीर्षक ढूंढता है। जब वह अख़बार बेचता है तो उसके भीतर
अद्भुत आत्मविश्वास दिख पड़ता है।मजमा लगा देता है वह। आँधी बहा देता है, अख़बार में छपे मामलों का हवाला दे देकर। अख़बार नहीं
बेचता वो, मेला लगा देता है। दे भाषण, दे भाषण। प्रधानमंत्री से लेकर चपरासी जी तक का उद्धार
करते, हँसते-हँसाते, कूदते-फांदते,घंटे भर में पता चलता है
कि काख तले का बंडल हवा हो गया। लोग प्यार से ख़रीदते हैं अख़बार। खुदरे पैसे का
बहाना बनाकर दस पैसे कम भी लौटाता तो किसी को कोई ऐतराज़ नहीं। दरअसल बिसराम
प्रसाद को चालीस साल गुज़र गए अख़बार बेचते हुए। देश को आज़ादी मिली थी जिस साल--तभी
बिसराम प्रसाद हॉकरी के धंधे में आया था। कुल तेरह साल की अवस्था थी उसकी। इन
चालीस वर्षों में उसने धंधे तो बहुतेरे किए लेकिन अख़बार बेचना उसका मुख्य धंधा
रहा। धंधे के वर्ष जैसे-जैसे
बीतते गए बिसराम प्रसाद की पकड़ बढ़ती गई अख़बार के ग्राहकों पर। उनके मनोविज्ञान
का अध्ययन बढ़ता गया। और अब उन चालीस वर्षों का अपना अनुभव उड़ेलता है बिसराम
प्रसाद पाठकों के समक्ष। इसके लिए ज़रूरी होता है कि बिसराम प्रसाद अख़बार दूसरों
को पढ़ाने के पहले ख़ुद पढ़ ले, ज़रा
बारीकी से, ताकि किसी के सामने भटभटाने
की नौबत नहीं आए। ताकि मुँह और हाथ का तालमेल बनाए रख सके वह।
अख़बार उलटते-पलटते एकदम से थथम गया बिसराम प्रसाद। सातवें पन्ने पर उसकी आँखें गड़ी रह
गईं। फिर आफ़त। फिर जान का जोखिम। मन खीझ गया।बाज नहीं आते संपादक अपनी चाल से।
अपनी ज़िद्द के आगे किसी की नहीं सुनते। ख़ुद तो जायेंगे दुनिया से, पीछे से सात-हाथ का पगहा भी लेते जायेंगे। बिसराम प्रसाद के बाप का क्या? राम छापो या रहीम छापो।
अख़बार तो अख़बार रहेगा, बंदूक
का बुलेट तो नहीं बनेगा। लेकिन जब संपादके राम पागल हैं तो बिसराम प्रसाद क्या करे? हर अंक में कोई न कोई
लफड़ा। समझा कर थक गए कि संपादक जी, अख़बार
अख़बार रहेगा, तोप नहीं बनेगा, जो आप
गड़बड़-घोटाला करने वाले सबको एक
साथ उड़ा दीजिएगा। इतना कड़क अख़बार निकालने की क्या ज़रूरत है? और तो और, उस गुंडे हरामी के पिल्ले के खिलाफ़ इतना बढ़ चढ़ कर
लिखने का फ़ायदा?
परधान मंत्री तो वह है नहीं जो उसकी प्रतिष्ठा चली जाएगी। शहर बाज़ार का हीरो बन
जाएगा हीरो। बाज़ार में वसूली बढ़ जाएगी उसकी। ऊपर से बाँस करेगा संपादक का कि
क्यों छाप दिया, इस तरह बढ़ा चढ़ा कर। सारी
की सारी संपादकी धरी की धरी रह जाएगी और सुखले प्रान निकल जाएगा।मार देगा किसी दिन
गोली। बीबी छाती पीटेगी और बाल बच्चे भीख मांगते फिरेंगे सड़कों पर। तब कोई याद
करने वाला भी नहीं होगा। मना करने पर मानते नहीं। संपादक बनते हैं। न साधन है न
सुविधा। एगो टिरी-टिरी
मशीन है, वह भी ट्रेडिल। मशीनमैन
छापता है तो अपने खींचना पड़ता है अख़बार
का पन्ना, मशीन से। पसीने से तर- बतर
हो जाते हैं। लिखो, प्रूफ़
देखो, छापो-छपवाओ,मोड़ो, बंडल बनाओ और बाज़ार में अख़बार पहुँचा कर फिर भर बाज़ार
पूछते चलो परतिकिरिया कि अख़बार का यह अंक कैसा निकला है? अख़बार लेने वाले भी विचित्र हैं। मुँह देखकर अख़बार
लेते हैं और चूतड़ तले दबाकर हरदी मिरचा तौलने में मशगूल हो जाते हैं और फिर पूछते
हैं, बिजली विभाग के खिलाफ़
क्यों नहीं लिखते। जब संपादक अपना सा मुँह बनाकर बताते हैं कि पहले ही पन्ने पर
बिजली विभाग की गड़बड़ियों के खिलाफ़ कवर स्टोरी छपी है तो कहने लगते हैं कि अख़बार
में लिखने-छापने से क्या फायदा? सरकार कुछ सुने तब न? फालतू है अपना समय बर्बाद
करना। तब संपादक का चेहरा और लटक आता है। लेकन बनते हैं सिद्धांतवादी। जैसे कवनो
बड़का अखबार के संपादक हों।
आप मूरख हैं तो सभी मूरख हो जाएं संपादक जी? बिसराम प्रसाद ने मन ही मन सोचा। किसने कहा था कि बब्बन
पहलवान के खिलाफ़ न्यूज़ छापिए। बब्बन पहलवान के खिलाफ़ नहीं भी छापते तो लोग यह
नहीं कहते कि आप कम क्रांतिकारी हैं। और क्या-क्या छापिएगा बब्बन पहलवान के खिलाफ़?मंत्री जी का खासम खास आदमी है। मंत्री जी के लिए बूथ
कैप्चर करने वही गया था, न कि आप। पूरा शहर थर्र मारता है उससे। थाना उसके नाम से
घबराता है और दारोगा-दारोगी अपने ट्रांसफर रूकवाने के लिए उसी के यहां पैरवी करते
हैं। और रेप सातवें पेज पर नहीं, बल्कि
पहले पेज पर छापिए, बब्बन
पहलवान को कोई अन्तर नहीं पड़ता। कहाँ है सरकार?और यदि है भी तो बबनवे के लिए है, कि आपके लिए।मंत्री जी
की सरकार बने, इसके लिए ख़ून की नदी
बहाने को बबनवे तैयार रहता है न कि आप?रेप कवनो पहले पहल थोड़े न किया है। रोज़ रात में किसी ग़रीब की छेदवाली फांद
जाता है और शान से गटार कर निकल जाता है। बे-रोक- टोक,
कोई माई का लाल हिम्मत करके उसको रोक क्यों नहीं देता?कौन कंटरोल करे उसको। वह
तो ख़ुद सरकार है। और आप भर देश को सुधारने का ठेका क्यों उठाए हुए हैं?क्या हैसियत है आपकी?इ कलम घस देने से सचमुच
क्या बिगड़ जाएगा उसका?लेकिन आपका तो प्रान पखेरू निकल जाएगा किसी दिन। भेज देगा तेलपा घाट। कोई पूछने
भी नहीं आएगा मरने के बाद कि संपादक जी का घर बचा कि ढह-ढिमला गया। कोई प्राईज़
नहीं देगा कि आहाहा, बहुत
क्रांतिकारी न्यूज़ छापते थे संपादक जी। अगर अख़बार के पाँच कॉपी की बिक्री बढ़
जाती इ सब न्यूज़ छापने से तो संतोष हो जाता कि चलो,
बिक्री तो बढ़ी। तब फिर काहे को इतना ख़तरा मोल लेते हैं?सचमुच बुद्धि भरनष्ट हो
गयी है। और क्या कहा जाए-बिसराम प्रसाद ने सोचा खीझ और गुस्से में आकर...
संपादक प्रेस में
ही थे।बंडल बनवा रहे थे, गांव
कस्बों में भिजवाने के लिए। बिसराम प्रसाद का दिमाग गरम था। एक पल सोचा कि बंडल दे
मारे संपादक के सिर पर और अपना रास्ता नाप ले।-- तेरह अख़बार वाले हैं अपना अख़बार
बेचवाने के चक्कर में। तोड़ने के लिए प्रलोभन देते रहते हैं।कुर्ता सिला देंगे तो
चादर ख़रीदा देंगे। सौ जतन करते हैं वो जिनगी रहेगी तो अख़बारों की कमी नहीं होगी, बेचने के लिए देने वालों की। अख़बार सांध्य दैनिक हो, साप्ताहिक हो, पाक्षिक हो, या
फिर मासिक ही क्यों नहीं हो। कोई अंतर तो नहीं पड़ता। कमीशन से मतलब है। गुन है तो
पूजा तो होगी ही। लेकिन दूसरे ही क्षण बिसराम प्रसाद का जज़्बात जाग गया। ऐसा तो
कभी नहीं हुआ कि जिस अख़बार को आगे बढ़ाया उसे उसी शहर में नीचे भी गिराया हो। भले
वह शहर ही छोड़ देना पड़ा हो। मुज़फ्फरपुर,
पटना, राँची, समस्तीपुर सभी जगह तो बेचा अख़बार लेकिन किसी अख़बार से
विश्वासघात नहीं किया, धोखाधड़ी
नहीं की। धोखाधड़ी करे बिसराम प्रसाद तो ज़ुबान पर छछात सरसती क्यों बैठतीं। जिनगी
भर केवल छोटे कस्बाई अख़बार बेचते रह गए। किसी बड़े अख़बार को हाथ नहीं लगाया।
राजधानी में भी नहीं। मन नहीं भाता बड़ा अख़बार। सभी अख़बारों में एक ही ख़बर।ऊपर
से एजेंट का ताव अधिक और कमीसन कम। अख़बार बच जाए तो घर से घाटा। लेकिन छोटे अख़बार
में ठीक उल्टी स्थिति। मुँहमांगा कमीसन, अख़बार बचे तो लौटाने की सुविधा और ऊपर से इज्ज़त प्रतिष्ठा। बिसराम प्रसाद
के सिर में ज़रा सा दर्द हुआ कि संपादक जी हाज़िर,
एनासिन लेकर। खाइए टैबलेट और बेचिए अख़बार बिसराम प्रसाद
जी वरना ख़बरें बासी हो जाएँगी और सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा। इसलिए बाप की तरह
पूजते हैं छोटे अख़बार वाले बिसराम प्रसाद को। और इसी मान सम्मान के कारण निबह गई
पूरी ज़िंदगी बिसराम प्रसाद की, छोटे
अख़बार वालों के साथ। भले एक से बढ़कर एक गए-गुज़रे मिले,बिसराम प्रसाद को। लेकिन साथ जल्दी नहीं छूटता। पकड़ लिया तो पकड़ लिया।
छोड़ने के पहले सौ बार सोचना पड़ता है। बिसराम प्रसाद ने मन पर थोड़ा काबू किया।
बंडल को काँख तले दबाया और निकल गया प्रेस से बाहर।
सड़क पर आने से पहले सोच लिया बिसराम प्रसाद ने कि वह बब्बन पहलवान का नाम
नहीं लेगा मजमा जुटाने में। कौन ठीक,कहां धर दबोचे?
अगर किसी तरह सूचना मिल गई उसे, कि
उसके खिलाफ़ कुछ छपा है तो हाथ जोड़ देगा और कहेगा कि उस अनपढ़ का क्या दोष? समझे संपादक से बब्बन पहलवान। बिसराम प्रसाद को तो जो कुछ छाप-छुप कर मिलता
है, वह बेचकर अपने पेट का
जुगाड़ करता है। बस!
बाकी अख़बार में क्या छपा है, उसे
कुछ मालूम नहीं, कोई मतलब नहीं।
बाज़ार में अख़बार लहराते
हुए वह तेज़ी से निकला। कचहरी खुल चुकी होगी। कचहरी में गाँव-दिहात के काफी लोग
रोज़ आते हैं नए-नए
लोग और उनके बीच अख़बार ज़्यादा बिकता है। शहर के लोग तो टीवी और राजधानी के बड़े
अख़बारों के आगे लोकल अख़बार को पूछते ही नहीं। नानी मरती हैं उनकी एक रूपया जेब
से निकालने में।बिसराम प्रसाद झटक कर बच बचा के निकला जा रहा था, लेकिन बब्बन
पहलवान के खौफ़ से वह पीछा नहीं छुड़ा पा रहा था। उसके मन में बब्बन पहलवान का भय
कहीं दूर तक उतर गया था और वह उसके दहशत से उबर नहीं पा रहा था। इसी मानसिकता के
तहत वह चलता तो आगे लेकिन पीछे मुड़-मुड़ कर बार-बार देखता कि कहीं बब्बन पहलवान
उसका पीछा तो नहीं कर रहा। उसने बब्बन पहलवान के नाम को अपने दिलोदिमाग से झटक
देने की पूरी कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुआ। ख़ौफ़ बढ़ता ही जा रहा था। इस ख़ौफ़
का असर यह था कि उसकी ज़ुबान और हाथ में तालमेल नहीं बैठ पा रहा था। कुछ देर तक
मजमा लगाकर अख़बार बेचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था वह। कौन ठीक, कब पहुँच जाए बब्बन पहलवान और उसके आदमी शुरू कर दें
करना बिसराम प्रसाद का कल्यान।
कचहरी के रास्ते में
कलेक्टरी के मुख्य द्वार पर पल भर के लिए रूका बिसराम प्रसाद। भीड़-भाड़ रोज़ की
तरह ही थी। खद्दरधारियों और वकील मुख़्तारों से भरी थी पूरी कलक्टरी। सोचा, अंदर घुस कर पच्चीस-पचास अख़बार निकाल दे वह। वह जैसे ही
गेट के भीतर घुसा, पीछे
से तेज़ हॉर्न बजाते किसी मुंसिफ़-जज की कार गुज़र गयी। नीम के पेड़ के नीचे कार
रूकी। चपरासी ने दरवाज़ा खोला और सैलूट लगाई।जिला जज साहेब थे। चश्मे का शीशा साफ़
करते कार से बाहर निकले। तबतक पेशकार भी हाज़िर हो गये। ड्राईवर,पेशकार और चपरासी तीनों कचहरी की भीड़ को हटाते आगे-आगे
और जज साहेब पीछे-पीछे।सज्जनता और शालीनता के प्रतिमूर्ति दिखते। बिसराम प्रसाद को
उबकाई आ गयी। छी:छी:। कहने को जज और करने को चोरी और सीनाजोरी, दोनों साथ-साथ।संपादकवा ने उस बार बहुत जोखिम उठाया था।
छोड़ दिया जज साहेब पर तीर। न्यूज़ महज़ इतना भर छपा था कि जज साहेब कोर्ट के
जेनरेटर को अपने आवास में चलवाते हैं और डीज़ल जाता है सरकारी कोष से। चाहते तो जज
साहेब ग़लती सुधार लेते। लेकिन ठहरे जज साहेब। पूरे ज़िले की न्याय-व्यवस्था के
मालिक। ताव खा गए। ग़ुस्से में आकर अपने पेशकार को भेजा,
शहर के सबसे मशहूर क्रिमिनल वकील को बुलवाने के लिए।
वकील को सबसे सुनहरा मौका मिल गया, जज
साहेब पर एहसान जमाने का। उसने अपने उन तमाम चेले-चपाटियों को बुलाया,जिनकी वह हत्या,
लूट, डकैती
के कांडों में ज़मानतें दिलवाता था। पूरे जवार के क्रिमिनल बंदूक-राईफल ले-लेकर अख़बार
के दफ़्तर में आते रहे। संपादक को जान से मारने की धमकी भी दी उन्होंने। लेकिन संपादक
टूटे नहीं। फिर एक दिन दर्जन भर गुंडे आए और टाइप किए हुए एक दस्तावेज़ पर जबरन
संपादक से हस्ताक्षर करा के चलते बने। दस्तावेज़ का मज़मून यह था कि अख़बार में
संपादक ने जो कुछ छापा था, वह
झूठ और तथ्यहीन था और संपादक इसके लिए क्षमाप्रार्थी था। थाना गए संपादक, लेकिन
रिपोर्ट लिखवाने में सफल नहीं हो पाए। थानेदार ने मीठे लहज़े में साफ़ कह दिया कि
उसे ऊपर से ऐसा आदेश मिला है। दूसरे दिन वकीलों के संघ ने जज साहेब पर कीचड़ उछालने
के लिए अख़बार की थूका-फज़ीहत कर दी। संपादक जी हाथ मल कर रह गए। सफाई देते-देते
थक गए। कोई सही बात सुनने वाला नहीं मिला।
जज साहेब का चेहरा देखते
ही मन खट्टा हो गया बिसराम प्रसाद का। पाँच-सात
अख़बार ही बेच पाया बिसराम प्रसाद और कचहरी के हाते से बाहर निकल आया। कोफ़्त हो
गयी उसे कचहरी के माहौल से ही। सड़क पर आकर उसने राहत की साँस ली।
कचहरी के सामने वाले कुँअर सिंह मैदान में काफ़ी चहल-पहल थी। जत्थों में
लोग जुट रहे थे। लाउडस्पीकरों से राष्ट्रभक्ति गीत के रिकार्ड बजाए जा रहे थे।
तिरंगा झंडों से पूरा मैदान पटा हुआ था। कोई बड़े नेताजी पधार रहे थे शायद।बिसराम
प्रसाद उधर ही चल पड़ा। ज़्यादा भीड़-भाड़ में अख़बार ज़्यादा बिकेंगे ही। यही
सोचते हुए वह लंबे डग मारता मंच की ओर बढ़ा जा रहा था। भीड़ में पहुँचकर उसने चिल्लाना
शुरू कर दिया। लोग आकर्षित होने लगे। मजमा
जमने लगा। लेकिन तभी साठ-पैंसठ कारों का एक काफ़िला मैदान के उत्तरी छोर पर पहुँचा।
मंच से जय-जयकार की ध्वनि उठने लगी। जमा जमाया मजमा नेताजी के आते ही टूट गया। लोग
नेताजी की ओर दौड़ पड़े। फूल-मालाओं से लादकर नेताजी को मंच पर लाया गया। बिसराम
प्रसाद का मन छोटा हो गया। अंधे हैं इस शहर के लोग। अपने पर कोई भरोसा नहीं और लाल-
बुझक्कड़ों के पीछे दौड़ते हैं। हर बार ठगे जाते हैं लेकिन मोह-माया नहीं टूटता।
चालीस साल हो गए आज़ादी मिले इस देश को। लेकिन पूरे शहर को न बिजली नसीब है, न पानी। सड़कों पर कूड़े के अंबार लगे हैं और नालियाँ
सड़क पर ही बहती हैं। लेकिन नेता लोग आते हैं तो जैसे भाग्य-विधाता याद आ जाते
हैं। गुस्सा आ गया बिसराम प्रसाद को पब्लिक पर। निरे मूर्ख ही रह गए लोग। अख़बार
में नगर की समस्याएँ छपती हैं। उससे कोई मतलब नहीं। सोचते हैं कि नेता लोग आ गए तो
सब दुख दर्द हर लेंगे। जैसी करनी वैसी भरनी। बिसराम प्रसाद क्या करे? दौड़िए मृगतृष्णा के पीछे और काटिए नरक। अब अख़बार क्या
खाक बिकेगा। भाषण सुनने के बदले कोई अख़बार क्यों पढ़ेगा? बिसराम प्रसाद ने सोचा और लौटने लगा। फिर चलते-चलते एक खद्दरधारी सज्जन से
पूछ बैठा कि कौन नेता जी आ रहे हैं?
खुशखबरी सुनाने के अंदाज़ में खद्दरधारी बुज़ुर्ग ने बताया कि कोई ऐरे-गैरे नेता
नहीं, बल्कि मंत्री जी आ रहे हैं, मंत्री जी। इस ज़िले और शहर के इकलौते मंत्री जी। तबतक
मंत्री जी फूल-मालाओं से लदे मंच पर अवतरित हुए और हाथ जोड़ कर करने लगे जनता का
तड़ातड़ अभिनंदन।बहुतो ने हाथ जोड़े, बहुतो ने तालियाँ बजायीं...और ढेरों ने हाथ हिलाकर मंत्री जी का अभिनंदन
किया। लेकिन बिसराम प्रसाद ने ऐसा कुछ नहीं किया। बिसराम प्रसाद के चेहरे पर एक
तीखी प्रतिक्रिया उभरी और मुँह का सारा बलगम ज़मीन पर थूक दिया बिसराम प्रसाद
ने।साला मंत्री क्या बन गया, भगवान
को भी पीछे छोड़ दिया। चेहरे पर कितनी भद्रता दिख रही है अभी। मुँह से तो मधु
टपकेगा ससुरे के। लेकिन अख़बार में एक फोटू क्या छप गया था, बवाल कर दिया था इस टुच्चे ने। सर्किट हाऊस में बैठकर इत्मीनान
से दारू पी रहा था। टेबल पर बोतलें थीं और बग़ल में किसी समाजसेविका के भेष में एक
लड़की बैठी थी। सातवें पेज पर ही छपा था वह फोटो भी। अगिया बैताल बन गया था साला।
जवाब नहीं जुर रहा था तो नंगई पर उतर आया था।इलाके भर के खद्दरधारी और पैंटधारी
रंगबाज हफ्तों तक ऑफिस में आते रहे थे। एक दिन तो सरेआम रोड़ेबाजी भी की उन्होंने।
मशीनमैन का कॉलर खींच कर मारा था उनलोगों ने और उसे बचाने गए संपादक का तो पत्थर
से सिर फोड़ दिया था। प्रेस फूँक देने के लिए वे लोग टूट पड़े थे, लेकिन मुहल्लेवाले टूट पड़े तो भाग जाना पड़ा था उन्हें।
जनतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमले संबंधी तार पर तार भेजे थे संपादक ने। परधान मंत्री,राष्ट्रपति,सूचना-प्रसारण मंत्री और मुख्यमंत्री सबको। लेकिन कहीं कोई पत्ता भी नहीं
हिला, हफ्ते भर इंतजार करने के
बाद संपादक ने पत्रकार संघ की एक ज़रूरी बैठक बुलवायी। लेकिन बैठक में जुटे केवल
दो पत्रकार और वह भी नौसिखुए। पटना के बड़े अख़बारों में संघ के लेटरपैड पर घटना
की जानकारी और बयान भेजा गया, लेकिन
मंत्री ने ऐसी गोटी बिछायी कि किसी अख़बार ने अपने छोटे से कॉलम की एक लाइन भी
बर्बाद नहीं की। फिर हफ्ते भर उन्हीं अख़बारों में मंत्री के छुटभैयों के बयान
छपते रहे, बड़ी-बड़ी सुर्ख़ियँ- कि
अख़बार ने मंत्री जी को बदनाम करने और विपक्षियों के बहकावे में आकर ब्लैकमेलिंग
करने के लिए ऐसा गंदा फोटो छापा। एक नेताजी को इस मामले में सीआईए का हाथ नज़र आ
गया और न्यायिक जाँच कराने की उनकी मांग को बड़े अख़बारों ने खूब उछाला। कुछ अख़बारों
ने तो इस अख़बार को उग्रपंथियों के हाथों खेलने के विरूद्ध चेतावनी दे डाली।
इन्हीं विचारों में खोया था बिसराम प्रसाद कि मंच संचालक ने बब्बन पहलवान से अपील
कर दी कि वह मंत्री जी का स्वागत करे। बिसराम प्रसाद को काटो तो ख़ून नहीं। बग़लगीरों
से आँख बचाते हुए झटपट मोड़ा अख़बार को बिसराम प्रसाद ने। काँख तले दबाया और बिना
किसी शोर-शराबा के निकल गया भीड़ से बाहर। और सरपट भागने के अंदाज़ में चलने लगा
बिसराम प्रसाद। क़रीब-क़रीब हाँफते हुए वह पहुंचा कलट्टरी।तब जाकर जान में जान
आयी। चापाकल से पानी पीया और बैठ गया बजरंग बली के चबूतरे पर कुछ देर आराम करने के
लिए। हँफनी थम ही नहीं रही थी। पसीने से तर-बतर हो रहा था वह। सो उसने अख़बार को अँगौछे
में लपेट लिया और उसे सिरहाने रख चबूतरे पर ही लेट गया। आँख मूँद कर उसने थोड़ी
राहत पाने की कोशिश की। लेकिन आँख सटे तब न। आँख सटे भी कैसे? और इस संपादक का अख़बार बेचते सट भी कैसे सकती हैं आँख..चैन
लेने दे तब न। हर अंक में एक से बढ़कर एक लफड़ा। अपनी जान जोखिम में डालना था तो
खूब मज़े से डालते संपादक, लेकिन
दूसरों की जान के बारे में तो सोचना चाहिए था उन्हें। मुँह मारे ऐसे संपादकी का।
दिल्ली-बंबई का अख़बार होता तो बात दूसरी थी। मुट्ठी भर का शहर। सभी एक दूसरे को
जानते हैं। कोई पता लगाना चाहे कि बिसरमवा शहर के किस कोने में बेच रहा है अख़बार
तो पलक झपकते पता मिल जाएगा। वह भी साला उज्झड शहर। सब के सब रंगबाजे है। संपादके
अड़ियल टट्टू है। अख़बार निकालने के लिए कितनी तिकड़मबाज़ी चाहिए, यह तो पता ही नहीं है। ट्रेनिंग लेनी चाहिए उन्हें कि
किस-किस चालबाज़ी से चलती है संपादकी। था मुज़फ्फ़रपुर वाला। निकालता था अख़बार
वह। एक नंबर का चेंगड़ा था। रंग लगे चोखा। न्यूज़ छापने का तरीका था उसके पास।
हेडिंग लगाता था कि सोनिया के साथ बलात्कार हुआ। पूरा पढ़ने पर पता चलता था कि
सोनिया किसी कुतिए का नाम था। न्यूज़ पढ़ने वाले उसके पूरे खानदान का उद्धार कर
देते थे। लेकिन पैसे तो बरस पड़ते थे। रोज़ कोई न कोई झाँसा देकर हज़ारों में
निकलवा लेता था अख़बार वह। न किसी से बैर ,न किसी से दुश्मनी। न कोई झंझट, न जान
को जोखिम। समस्तीपुर वाला तो मुज़फ्फ़पुर वाले का बाप था,
बाप। कहता था, माल आना चाहिए। अख़बार दस कॉपी ही निकले तो क्या बुरा। अख़बार की सारी मलाई
ऊपरे-ऊपर मार जाता था वह। तीन सौ अख़बार छपवाता था और तेहर हज़ार सरकुलेसन के नाम
पर काग़ज़ का सरकारी कोटा गपच जाता था। कभी-कभी तो उतने ही अख़बार छपवाता, जितना विज्ञापनों के बिल बनाने के लिए ज़रूरी होता। था
ससुरा बहुत ही पाजी, एकदम
से हरामी का औलाद। कमीशन देते नानी मरती थी उसकी। कमीशन के नाम पर आश्वासन देता था
कि बस दो रोज़ बाद अख़बार का नया अंक मार्केट में। और हफ़्ता भर बाद खुशखबरी यह
सुनाता था कि अब एक ही बार संयुक्तांक ही निकलेगा। ढेर लगा देता था संयुक्तांकों
की। किताबों और मैगजिनों से चुरा-चुरा कर पूरा अख़बार भर देता था और बाकी में
विज्ञापन छापता नहीं था, बल्कि
ठूँस देता था। और पब्लिक को जितना अधिक उल्लू बनाता था वह,
उतनी ही मात्रा में पब्लिक उसे सम्मान देती थी-संपादक जी, पत्रकार जी और क्या-क्या नहीं।
बिसराम
प्रसाद ने करवट बदली लेकिन तंद्रा टूटी नहीं। अख़बार में चाहे क्रांतिकारिता छपे
या फिर कुछ और , अख़बार जितना बिकना होगा, बिकबे करेगा। दूसरा अख़बार बिक रहा है कि नहीं इसी शहर
में। एक अंक में किसी मोटे आसामी के बारे में कोई आरोप छाप देता है तो दूसरे ही
अंक में उसका खंडन और अपनी ओर से 'खेद
है' भी। किसी के बारे में
सेक्स स्कैंडल छापने की घोषणा छापता है और छाप देता है, अगले अंक में उसके
सच्चरित्रता और कर्तव्यनिष्ठा की कहानी। जिस किसी सरकारी दफ़्तर में जाता है, अफ़सर उसे सम्मान के साथ कुर्सी पर बिठाते हैं और
चाय-पान कराते हैं। ऊपर से प्रशासन के भीतर का न्यूज़ भी बताते हैं, एक-दूसरे के ख़िलाफ़। यही नहीं,
अपने छोटे अफ़सरों पर धौंस जमाकर उसके अख़बार के वार्षिक
ग्राहक भी बना देते हैं। ऊपर से सरकारी विज्ञापनों से भरे रहते हैं पेज। बदले में
वे कोई कमीशनखोरी नहीं करते। उनका काम मज़े में चलता और उस अख़बार का भी। कितनी
चैन से कटती है उस भाग्यपुरूष की ज़िंदगी। किसी के दरख़ास्त पर कलम डुलाया नहीं कि
सीमेंट ,कोयला, चीनी, किरासिन
और यहाँ तक कि बंदूक के लाइसेंस तक का परमिट बन कर तैयार। राजस्व पदाधिकारी किसी
सेठ के साथ किसी ग़ैरमज़रूआ सरकारी ज़मीन की बंदोबस्ती करने के पहले सूचना और हिस्सा
दोनों भेज देते हैं। पिछले ज़िलाधिकारी को कितने क़ायदे से इस्तेमाल किया उसने कि
वाह-रे-वाह। उसकी बुद्धि को दाद देनी ही पड़ती है। दूसरे अख़बार का संपादक हुआ तो
उससे क्या। बुद्धि का बटलोही है वह। थोड़ा सा न्यूज़ छापा पिछले ज़िलाधिकारी के ख़िलाफ़
कि ज़िलाधिकारी ने उसे बुला लिया। सौदा पट गया। उसने पुरस्कार दिया संपादक को। शहर
के व्यस्त इलाके में दो कठ्ठा सरकारी ज़मीन आवंटित कर दिया उसको, प्रेस के विस्तार के लिए। विरोधी लोग देखते रह गए। ख़ुद
जाकर उसने उस जगह पर भवन निर्माण का शिलान्यास भी कर दिया ताकि दूसरे छोटे
पदाधिकारी उस ज़मीन पर संपादक के विरूद्ध जाने की जुर्रत नहीं कर सकें। उस संपादक
ने विरोध में ख़बर छापते-छापते, ज़मीन
मिलते ही तेवर बदल ली और अगले अंक में पूजा-पाठ में लीन ज़िलाधिकारी की फोटो छाप
दी उनके धर्मपरायणता का जयघोष करते हुए। चाहते तो अपने संपादक भी निर्वाह कर लेते
उसके साथ। उदार और भला आदमी था वह। लूटा-कमाया चाहे जितना इस ज़िले से, किसी को काम के लिए ना नहीं कहा। दनादन साइन करते चला
गया। अपने संपादक के साथ ज़रा भी बेरूख़ी से पेश नहीं आया। अपने ख़िलाफ़ करप्शन का
न्यूज़ पढ़कर भी हँसा था वह और एक बड़े सहायक पदाधिकारी को भेजा था, संपादक को लिवा लाने के लिए बाइज़्ज़त। लेकिन संपादक को
तो दीवार पर ढाही मारना था। नहीं गए, कई बुलावों पर। तब उसने रूख़ बदल लिया और एक रात प्रेस सील हो गया।
आपत्तिजनक सामग्रियों की छपाई के शक के आधार पर। पुलिस वालों ने जमकर हड़काया
संपादक को। बात सुनने को तैयार नहीं थे। महीने भर कोर्ट-कचहरी, थाना घूमना पड़ा,
तब जाकर प्रेस खुला। ऊपर से उसने अख़बार का रजिस्ट्रेशन
रद्द करने के लिए केंद्र सरकार के रजिस्ट्रार को लिख दिया और प्रेस काउंसिल में
शिकायत भी लिख भेजी। अख़बार के दो अंक निकल नहीं पाए। और जब अख़बार निकलना शुरू
हुआ तबतक ज़िलाधिकारी का तबादला हो चुका था। मुँह देखते रह गए संपादक।
आदमी को समझाया जाता है, भैंस
को नहीं। बिसराम प्रसाद ने लेटे-लेटे सोचा। पत्थर पर सींग मारने से सींग ही टूटेगी, पत्थर नहीं, यह कौन समझाए संपादक को। एस.पी, कलट्टर और मंत्री की फोटो छाप देने से कौन सी अख़बार की बेइज्जती हो जाएगी।इस
मामले में वो संपादक तेज़ है। ज़िला में किसी अफ़सर के आते-आते फोटो के साथ
इंटरव्यू छाप देता है और उसी दिन से उस अफ़सर को जेबी में लेकर घूमता है। साफ़
कहता है वह कि अख़बार बिजनेस है, शुद्ध
व्यापार। लेकिन अपने सनकी संपादक जी के मत्थे में यह बात अटती ही नहीं। खाली
सिद्धांत बघारते हैं फालतू। कहते हैं कि अख़बार बिजनेस नहीं, एक तेज़ धार वाला हथियार है---अस्त्र। समाज को जगाने का, उसे संघर्ष में उतारने का। देशद्रोहियों और
समाजविरोधियों के ख़िलाफ़ एक अभेद्य चट्टान। हमला चाहे जितना भयंकर हो, कोई कंप्रोमाइज़ नहीं हो सकता। मत हो कंप्रोमाइज़, बिसराम प्रसाद के ठेंगे से। लेकिन अब बिसराम प्रसाद साथ
नहीं देगा। बदलो अपना काम का ढंग संपादक जी नहीं तो जान छोड़ दो। बहुतेरे मिलेंगे
हॉकर, बिसराम प्रसाद की तरह। जो
चवन्नी लेगा, वही बेच देगा अख़बार।
उठकर बैठा
बिसराम प्रसाद, इतना समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला उसे। अफ़सोस हुआ उसे। कलट्टरी के अहाते
में बस इक्के-दुक्के लोग ही बच गए थे। भीड़ क़रीब-क़रीब छँट चुकी थी। फालतू बातों
को सोचते-सोचते माथा में दर्द हो गया और अख़बार ख़रीदने वाले घर लौट चुके थे।
बिसराम प्रसाद को अपने चबूतरे पर उठंग रहने का अफ़सोस हो गया। जो करना होगा, कल से करेगा बिसराम प्रसाद। आज की रोज़ी-रोटी की लुटिया
क्यों डुबाए। उसने चापाकल पर मुँह धोया और अँगौछे से मुँह-हाथ पोछा, तब जाकर मन
थोड़ा हल्का हुआ।मन ही मन उसने तय कर लिया कि मठिया होते हुए अख़बार बेचते दफ़्तर
लौट जाएगा। बिक्री का हिसाब-किताब कर संपादक से हाथ जोड़ देगा कि-- अब बस। बहुत हो
गया। बिसराम प्रसाद अब अख़बार इस शर्त पर बेचेगा कि अख़बार में न्यूज़ हिसाब से
छपेगा। ऐसे मामले छपेंगे जिससे अख़बार की बिक्री बढ़े। नहीं तो अब जान नहीं देगा
बिसराम प्रसाद। तीन साल निभ गए, बहुत
है, संपादक अपने घर और बिसराम
प्रसाद अपने घर।
मठिया पर
भीड़-भाड़ थी। लाईन से लगे थे लोग संकटमोचन के दर्शन के लिए। बाकी लोग सड़क पर
बिखरे पड़े थे। याद आया बिसराम प्रसाद को। मंगलवार है आज। बजरंगबली का दिन। चांस
अच्छा था सो बिसराम प्रसाद शुरू हो गया दनादन। देखते-देखते बीस -बाईस अख़बार निकल
गए। बिसराम प्रसाद का उत्साह दुगुना हो गया। तभी किसी ने उसे पीछे की ओर
ढकेला।मुड़कर देखा बिसराम प्रसाद ने। चार-पांच पंडे थे। महंथ जी सीढ़ियों के ऊपर
खड़े थे। महंथ के चेलों ने उसे वहां से भाग जाने को कहा। महंथ ने गालियाँ भी दीं-'साले अब से मठिया के द्वार पर अख़बार बेचते देख लिया तो
टांगें चीर कर रख दूँगा'।
बिसराम प्रसाद सहम गया और खिसक गया आगे। साला यह महंथ है कि चांडाल? तत्काल बात समझ में नहीं आयी कि अख़बार देखकर इतना नाक-भौं
क्यों सिकोड़ रहा है महंथ। दिमाग पर ज़ोर दिया बिसराम प्रसाद ने। बात समझ में आ
गयी। संपादकवा ने महंथ की एक नहीं छोड़ी थी। बड़ी चौक के बीचो-बीच रातो-रात शंकर
भगवान को पैदा कर दिया था इसने। गोलंबर के बीचोबीच माटी खोद कर एक क्विंटल चना डाल
दिया था। उसी में एक शंकर जी की मूर्ति रख दी थी। मुन्सपैलिटी के पानी पाईप से रबर
का नली जोड़कर शंकर जी के मत्थे से गंगा का स्त्रोत बहवा रहा था। पानी पड़ने से
चना रात भर फूलता रहा और चने की ढेर ज्यों-ज्यों फैल रही थी शंकर जी माटी कोड़ कर
ऊपर उठते जाते थे। पूरे शहर के धर्म प्रेमी इस अद्भुत अवतार को देखने के लिए जुट
गए थे। फूल-माला से लद गए थे शंकर जी। बड़े पैमाने पर पैसे और प्रसाद चढ़ाए जा रहे
थे। ढोल-मजीरे भी आ गए थे और हरिकीर्तन शुरू हो गया था। आला अफ़सरों का दिमाग़
खराब हो रहा था कि क्या करें, क्या नहीं करें। बगले में मस्ज़िद थी,वह दूसरी मुसीबत थी।पुलिसवाले शंकरजी के पताल तोड़कर
निकलने से रोक पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। संयोग से उसी दिन अख़बार
निकलने वाला था। तीसरे पेज पर छापा संपादक ने इस सनसनीखेज मामले को।महंथ द्वारा
गोलंबर की ज़मीन को हड़पने के लिए की गयी साज़िश की संज्ञा दी गयी। अख़बार बाज़ार
में आ जाने पर प्रशासन के दिमाग का ताला खुला। एस.पी. ने ऐलान कर दिया कि यह किसी
की बदमाशी है, वे मूर्ति को उखाड़कर सबके
सामने सच्चाई को रखना चाहते थे। तभी महंथ गरज उठा कि ख़बरदार आपरूपी शंकर जी को
किसी ने हाथ लगाया तो ख़ून की नदियाँ बह जाएँगी। पब्लिक धर्म के उन्माद में बह गयी
और जय-जयकार के साथ प्रशासन को पीछे हटने की धमकी दी जाने लगी। पूरे शहर में तनाव
फैल गया। मुसलमानों में उलटी प्रतिक्रिया होने लगी। वातावरण में इतनी गर्मी आ गयी
कि लोग मंदिर और मस्ज़िद की रक्षा के लिए बलिदान देने की बात करने लगे। एस.पी. ने
बहुत ठंडे दिमाग से काम लिया। रात को कीर्तन में जब कीर्तन गाते लोग ऊँघ रहे थे, धावा बोल दिया। शंकर की मूर्ति एस.पी. ने अपने हाथों
उठाया और गांगी में प्रवाह के लिए तत्काल भेज दिया। ज़मीन के नीचे चने का ढेर देख
हरिकीर्तन करने वाले कुछ श्रद्धालु ऐसे ही भाग गए। महंथ समेत उसके चेलों को
गिरफ्तार कर लिया गया। मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया....और धीरे-धीरे स्थिति सामान्य बन
गई। महंथ ने जेल से ही धर्मविरोधियों के ज़हरीले पर्चे छपवाए लेकिन प्रशासन का रूख
देखकर सामने आने की किसी ने हिम्मत नहीं की। यदि महंथ की यह नयी दुकान खुल गयी
होती तो वह रोज़ इससे दम भर कमाई करता। सड़क से गुज़रते औरत-मर्द चवन्नी-अठन्नी
फेंकते तो बोरे में भरकर जमा होता पैसा।
जेल से ज़मानत
पर छूटा टिकधरिया महंथ और उसी दिन से लग गया अख़बार और संपादक के पीछे, दस-बीस हज़ार फूँक देने की धमकी दी उसने। धर्मप्रेमियों
के नाम से अख़बार के विरूद्ध उसने पर्चे छपवाए और बंटवाए। ऐसी की तैसी कर दी अख़बार
की उसने । प्रतिदिन मठिया में होने वाले सत्संग में श्रद्धालुओं को कसमें खिलाता
रहा वह कि वे धर्मविरोधी अख़बार का बहिष्कार करेंगे। चंदे इकट्ठे किये उसने, अधार्मिक अख़बार के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध छेड़ने के लिए।
बड़े-बड़े सेठों-मारवाड़ियों ने दिल खोल कर चंदे दिए। भक्त मंडली की ओर से ऐसे
धर्मविरोधी अख़बार को बंद कराने की मांग भी की गयी।
दो साल पहले की
घटना को भूला नहीं था महंथ। बिसराम प्रसाद ने सोचा,
ठीके किया महंथवा। कल से ऐसे भी अख़बार लेकर निकलने वाला
नहीं बिसराम प्रसाद। बहाना अच्छा दे दिया महंथ ने।अब छठ्ठी का दूध याद हो जाएगा
संपादक को। खूब छापिए और खुद पढ़िए अख़बार। बिसराम प्रसाद चले काम से।
बिसराम प्रसाद लोअर रोड के क़रीब था। आज का जतरा बिगड़ा हुआ था उसका। बंडल
में आधे से अधिक अख़बार बचे हुए थे। उसने तय कर लिया कि अब आगे नहीं बढ़ेगा। लोअर
रो़ड से गाड़ी पकड़ कर पहुँच जाएगा अख़बार के दफ्तर में। इन्हीं विचारों में डूबता
उतराता बिसराम प्रसाद लोअर रोड की ओर बढ़ रहा था कि ठीक मोड़ पर वह थथम गया। आज तो
हो गयी छुट्टी। कट गया टिकट। सामने खड़ा था क्षक्षात दैत्य। बब्बन पहलवान के दर्जन
भर से ऊपर चेले उसके साथ थे। हाथों में हॉकी स्टीक। उनके चेहरे का डिज़ाइन देखकर
ही गश आने लगा बिसराम प्रसाद को। उनका इरादा तो भाँप गया बिसराम प्रसाद लेकिन पीछे
भागने के लिए अब वक़्त नहीं था। बिसराम प्रसाद अनदेखी कर के आगे बढ़ने लगा कि किसी
ने लंगी लगा दी। चारों पल्ले चित्त सड़क पर गिर गया बिसराम प्रसाद। अख़बार का बंडल
नाले में जा गिरा। पहलवान के चेलों ने ठहाके लगाए। हिम्मत करके उठा वह। लेकिन
दूसरे ही क्षण आँधी आ गयी। कनपट्टी पर जाकर बैठ गया हॉकी स्टीक और आँखों के सामने
विकराल अंधकार छा गया। फिर तो पता नहीं कितने डंडे बरसे उसके बदन पर। सड़क पर
चिल्लाता और छटपटाता रह गया बिसराम प्रसाद। लेकिन बब्बन पहलवान के चंगुल से बचाने
के लिए कोई आगे नहीं आया। थोड़ी देर में सड़क पर बेहोशी की हालत में बिसराम प्रसाद
को छोड़कर चलता बना बब्बन पहलवान, तब
लोगों ने उसके पास आने की हिम्मत की। एक हज्जाम दौडा संपादक जी को ख़बर करने के
लिए।ख़बर मिलते ही संपादक के साथ दफ़्तर में मौजूद सभी लोग दौड़कर पहुँचे वहाँ।
तबतक उसके मुँह पर पानी के छींटे दे चुके थे लोग और बेहोशी टूट गयी थी। लेकिन दर्द
से कराह रहा था बिसराम प्रसाद।लाद-पाथ कर उसे दफ़्तर में लाया गया। काग़ज़ के कतरन
पर चादर डालकर लिटाया गया उसे। संपादक ने अपने हाथ से दूध गुड़ और हल्दी पिलाया
उसे। ख़ैरियत थी कि सिर नहीं फटा था। लेकिन भीतरमार ज़बरदस्त लगी थी उसे। एक सहायक
को डॉक्टर बुलाने के लिए भेजा संपादक ने। थोड़ा टनमन हुआ बिसराम प्रसाद तो संपादक
ने घटना की जानकारी करनी चाही, ताकि
थाने को सूचना दी जा सके। फफक कर रो पड़ा बिसराम प्रसाद। फुसलाते बहलाते और धैर्य
धराते थक गए संपादक और दफ़्तर में काम करने वाले सभी लोग। लेकिन बिसराम प्रसाद की
आँखों से बह रही अश्रुधारा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह जवाब कुछ नहीं दे
रहा था और बच्चों की तरह रोए जा रहा था, निरंतर। अपने जीवन के औचित्यहीन होने के एहसास से दबे बिसराम प्रसाद की ज़िंदगी
भर की भँड़ास आँसू बन कर छलक रहे थे। सारी लड़ाईयाँ आज हार गया था वह।
दफ़्तर में कोई दस-बारह लोग थे। मायूसी, सन्नाटा और दहशत की मोटी परत बिछ गयी थी पूरे दफ़्तर
में। सभी मौन थे। संपादक के चेहरे पर तनाव दिख रहा था। आँखें चढ़ गयीं थी और डबडबा
कर सूर्ख़ लाल हो आयी थीं। संपादक की आँखों में आक्रोश,
पापबोध, कुंठा, दहशत और प्रतिशोध की ज्वाला और उदासी, सबकुछ एकसाथ पढ़ा जा सकता था। गला रूँधा हुआ था। एक आग
जल रही थी भीतर, जिसपर चाहे जितना पानी
डाला जाता, आग की लपटें बढ़ती ही जा
रही थीं। सहायक को गए कुछ देर हो चुका था। डॉक्टर को लेकर वह नहीं आया था।
काफी देर तक सन्नाटा फैला
रहा दफ़्तर में। संपादक लगातार कहीं खोए रहे,
डूबते-उतराते। अचानक उनका मुँह खुल गया। सामने की बेंचों
पर बैठ अख़बार के सहयोगी लड़कों से उन्होंने पूछा-'तुममें से कौन-कौन अख़बार के लिए अपनी जान दे सकता है?'संपादक के प्रश्न ने लड़कों को झकझोर कर रख दिया। उनके
अंदर जवाब देने की सुगबुगाहट तो थी लेकिन मौजूद ख़ौफ़ और सन्नाटे को तोड़ने की वे
हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। कुछ लड़कों के चेहरे इस सवाल को सुनते ही स्याह पड़
गए थे। वे अंदर से बहुत डर गए थे। अपनी जान जोखिम में डालकर भी अख़बार को बुलंदी
की ऊँचाई पर पहुँचाने के उनके हौसले एकाएक चूर-चूर हो चुके थे।
कुछ पल तक शांत था सबकुछ, जैसे दुनिया रूक गयी थी ,
अचानक चलते-चलते आँखों से आँसू की दो गर्म बूँदें टपक कर
पसर गईं टेबल पर और रूँधे हुए कंठ से निकले गिनती के महज दो शब्द-'अख़बार बंद ,सारा झमेला ख़त्म....'।बस।
और संपादक झटके से उठे। इतनी ही देर में उनके चेहरे पर कई रंग चढ़े और उतरे और
अंतत: बच गया एक हारा हुआ,जर्द पड़ा थका-मांदा चेहरा। सारा आक्रोश, संपूर्ण स्वाभिमान, कुछ कर गुजरने के तीखे
तेवर, सबकुछ जल कर भस्म हो चुका
था।
डॉक्टर को लेकर लड़का अभी तक नहीं लौटा था। दफ़्तर
के साथी धीरे-धीरे छँट गए थे। दफ़्तर में केवल बच गए थे ---टूट चुके संपादक और
ठंडा पड़ा बिसराम प्रसाद। संपादक बिसराम प्रसाद के समीप पहुँचे। आँखें खोल दी थी बिसराम
ने और देखता रहा था एकटक संपादक को, असहाय
निगाहों से। संपादक की नज़र टिक नहीं पायी, गर्दन झुक गयी और आँखों ने बरसात शुरू
कर दी। बिसराम प्रसाद भी सुबकने लगा। एक जीती हुई लड़ाई हार जाने के बाद की
प्रतिक्रिया थी यह। बहुत गहरे तक टूट जाने का अहसास था यह, जो आँसूओं का समंदर
बनाए जा रहा था।
लड़का लौट आया ।
बिना डॉक्टर के ही लौट आया। संपादक ने आँसू पोंछ डाला और मन को थोड़ा कड़ा किया।
लड़के ने सूचना दी कि अख़बार के नाम पर कोई डॉक्टर आने को तैयार नहीं। पिछले अंक
की प्रतिक्रिया थी यह। सातवें पेज पर ही घटिया दवाओं की पूरी फ़ेहरिस्त छपी थी। यह
भी छपा था कि कैसे डॉक्टर, कंपनियों से मोटा कमीशन वसूल कर मरीज़ों का गला काटते
हैं। ख़बर छपी थी तो डॉक्टरों के एसोसिएशन की ओर से दस हज़ार रूपए के नकद भेजे गए
थे। ताकि मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाए और खंडन छप जाए। हाथ जोड़ दिए थे संपादक ने। फिर
बैठक हुई थी एसोसिएशन की। तय हुआ था कि अख़बार को किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया
जाएगा और सबूत जुटा कर दवा कंपनियों से मुक़दमा करवाया जाएगा। मुक़दमा तो नहीं हुआ
ख़ैर। लेकिन अख़बार का नाम सुनकर भनक गए थे-- मरो साले। अब समझ में आएगा कि डॉक्टर
कितने काम के होते हैं?
संपादक ने ख़ून की घूँट पी
ली थी। होम्योपैथ की एक दवा मंगवायी और बिसराम प्रसाद को खिलाया। फिर गर्म पानी
में नमक डाल कर सेंकते रहे बिसराम प्रसाद के बदन को,
देर रात तक।बिसराम प्रसाद ने खाने से मना कर दिया।
संपादक की भूख भी मर चुकी थी। बेंच खींचकर लाए संपादक,
बिसराम प्रसाद के बगल में ही लोट गए, कटे हुए पेड़ की तरह।
संपादक का मन अब
निश्चिंत था। शांति मिल रही थी आत्मा को, जो होना था सो हुआ। अब भविष्य में कोई लफड़ा नहीं रह जाएगा। अख़बार बंद, सारे झमेले खत्म। अब किसी को कोई शिकायत नहीं रह जाएगी।
ज़माने की आँधी में उधिया गया अख़बार। हार गया अख़बार और जीत गए वे सारे, जो आज के
समाज के नायक हैं, जो
देश-दुनिया को चलाने वाले हैं। अब नहीं रहेगा जान का जोखिम। न अपनी ,न स्टाफ की और न हॉकर की। मन ही मन तय किया संपादक ने कि
वह बचे हुए सारे अख़बार जला देगा । और कल ही एक पर्ची निकाल देगा माफ़ीनामे के तौर
पर। जिनको-जिनको इस अख़बार ने ठेस पहुँचाया हो,
वे सभी माफ़ी दे दें। बकस दें अख़बार को। भविष्य में चूँ
तक नहीं करेगा वह। तोड़ देगा कलम की नोंक। मुर्दा हो जाएगा वह। चाहे जो शर्त हो, माफ़ कर दो प्रभुओं। अब ऐसी ग़लती कभी नहीं होगी। और ज़रूरत
पड़ी तो वह ख़ुद छोड़ देगा यह शहर, यह
ज़िला, यह प्रांत। प्रायश्चित
करने के लिए हर सज़ा मंज़ूर कर लेगा।
इतनी थकान, इतनी पिटाई और इतने हताशा के बावजूद आँखों में नींद नहीं
थी बिसराम प्रसाद के। सपने की तरह उभर रही थी,
परत दर परत अपनी पूरी ज़िंदगी। हमले का ज़िंदा दृश्य नाच
रहा था आँखों के पर्दे पर और विचारों में डूबता गया था बिसराम प्रसाद। एक प्रश्न
कौंधा था उसके मन में। आख़िर क्यों उठाते हैं संपादक इतने ख़तरे, और किसके लिए? क्या अपना नाम कमाने के लिए?क्रांतिकारी और बहादुर दिखने के लिए? नहीं...बहादुरी लूटने के लिए कोई अपनी जान की बाजी नहीं लगाता...और अख़बार
से नाजायज़ कमाते भी तो नहीं संपादक। कितने लोग जेब में नोट के बंडल ठूँस कर आए।
लेकिन नहीं बिका संपादक। आख़िर क्यों और किसके लिए? उसकी ग़लती इतनी भर है कि वह भ्रष्टाचार,
गुंडागर्दी, शोषण, अन्याय और लूट को मिटाना
चाहता है और कलम तोड़ कर लिखता है इन चीज़ों के ख़िलाफ़। इससे किसका फ़ायदा है? बिसराम प्रसाद ने अपने मन से ही पूछा, करवट बदलते हुए। और मन ने बस एक ही जवाब दिया-यह सब
तुम्हारे लिए है बिसराम प्रसाद। तुम्हारी हैसियत वाले उन लोगों के लिए जो विवश
हैं। क्या कारण है कि अख़बार का विरोध दो नंबरिए ही करते हैं। किसान,मज़दूर,कर्मचारी,नौकरीपेशा कर के पेट पालने वाले लाखों लोग क्यों नहीं अख़बार
के पीछे पिल्ल पड़ जाते हैं। क्या कारण है कि अख़बार में न्यूज़ छापने पर एक महंथ, एक भ्रष्ट मंत्री,
एक रिश्वतखोर जज,
एक कसाई डॉक्टर,
अख़बार के साथ उसी ढंग से पेश आते हैं जैसे बब्बन पहलवान
जैसा गुंडा और लुच्चा पेश आता है। आख़िर क्या अंतर है बब्बन पहलवान में और इन
सफेदपोशों में?मन ही मन तय किया बिसराम
प्रसाद ने कि ये सब एक ही थाली के चट्टे -बट्टे हैं। और अख़बार जब-जब उनकी नींद
हराम करेगा, वो उफनेंगे ही। करेंगे ही
हमसे रार।
बिसराम प्रसाद ने मन में गाँठ बांध ली----अब
जान जाए चाहे रहे, अख़बार निकलेगा। इसलिए कि अख़बार का निकलना संपादक और उनके
दोस्तों के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना ज़रूरी बिसराम प्रसाद के लिए और बिसराम की
तरह के और लोगों के लिए। इस निर्णय पर पहँचने के साथ बिसराम प्रसाद ने अपने अंदर
एक अद्भुत मज़बूती महसूस की। एक नयी ऊर्जा मिली उसे इस विचार से। उसका शरीर बहुत
हल्का और फ़ुर्तीला लगने लगा। बदन के चोट का दर्द पता नहीं कहाँ गुम हो गया। और पता
नहीं कब उसकी आँख लग गयी।
सुबह तड़के उठा बिसराम
प्रसाद।संपादक को जगाया नहीं। अख़बार का एक नया बंडल बनाया और निकल गया, रेलवे स्टेशन के लिए। संपादक जगे तो मन काँप गया। कहाँ
गया बीमार -लाचार बिसराम प्रसाद?मन
बेचैन हो उठा। किसी अनिष्ट के भय से काँप गए संपादक।
आज बिसराम प्रसाद में
गति थी, ऊर्जा थी, वाणी में ओज था और अख़बार को यूँ भाँज रहा था जैसे तलवार
भाँज रहा हो। आज उसके भीतर न बब्बन पहलवान का ख़ौफ़ था और न किसी सफेदपोश का भय।
वह स्वयं आँधी बन गया था आज। अब वह अख़बार के उन छोटे-मोटे सुर्खियों का हवाला दे
रहा था जिनका संबंध ग़रीबों, अनाथों, असहायों और शोषितों-पीड़ितों की ख़बरों से था। मजमे में
वह बब्बन पहलवान के ख़िलाफ़ आग बरसा रहा था।
https://www.facebook.com/rameshwarupadhyayauthor/
Nice work chotu bhaiyaa.
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